Wednesday, January 27, 2010

हम और हमारी वो...

इधर कई दिनों से समसामयिक गतिविधियों पर कुछ पोस्ट मैंने अपने इस ब्लॉग पर लिखे हैं। इन पोस्ट के बारे में मैं जब हमारी 'उन्हें' बताता था तो हर बार एक ही जवाब उधर से मिलता था, "भै! तुम तो हमेशा ऐसा ही सब बात पर लिखते हो जो हमरे पल्ले ही नहीं पड़ता। पता नहीं कोई तुम्हारा ब्लॉग पढता भी है या नहीं। हमको तो नहीं लगता। के ई सब आएं बाएं पढ़ेगा। अरे हमरे बारे में लिखो तो लोग को अच्छो लगेगा!" इतनी प्यार और मिठास के साथ उसका बोलना ही काफी था कि आज मैं यूँही उसके बारे में कुछ लिखने जा रहा हूँ.

पटना मेडिकल कॉलेज में जब साढ़े चार साल पहले एडमिशन लिया था तो यहाँ के माहौल के बारे में खासी जानकारी नहीं थी. बस एक विचार ही था कि बढ़िया डाक्टर बनना है तो बाबू मन लगा के पढ़े पड़ी, एन्ने ओन्ने मन के दौड़ावे से काम ना बनी. इसी विचार के साथ हमने कॉलेज में अपना पहला कदम रख दिया. उस समय रैगिंग पर पूरी तरह से रोक नहीं लगी थी और हम फ्रेशर के लिए कॉलेज में एक ड्रेस कोड था जिसमे उजले शर्ट और पैंट पहनने पड़ते थे और साथ में एक हरे रंग की टाई. लड़कियों के लिए उजला सलवार समीज और एक हरा दुपट्टा हुआ करता था. पहली ही दिन हमलोग को पकड़ कर हॉस्टल के छत पर ले जाया गया. रैगिंग क्या होता है जब तक ये जान पाते कि तभी एक बॉस ने पूछा, "फाईलम का है रे?" "जी, chordata",
इस सोच के साथ कि बौसवा तो खुश हो जायेगा, एक भले पढ़े लिखे जीव विज्ञान के छात्र की तरह हमने भी तपाक से जवाब दे दिया. शाबाशी की आस मन में लगाये बॉस के जवाब का इंतज़ार कर रहे थे कि सामने से तपाक से झाड पड़ी, "रे! साला हमलोग non-chordata हैं का रे. साला फाईलम chordata बताता है, हमनी तो जैसे इन्सेक्ट है. का रे, का बूझ लिया है, ढेर स्मार्ट है का तुम." चुप चाप सुनकर सोच ही रहे थे कि हमसे क्या गलती हुई है तभी एक और सीनियर के बोलने पर एक batchmate ने आ कर कान में कहाँ, "फाईलम का मने यहाँ पर caste होता है, अपना जात बता दीजिये."

यही से शुरू हुई हमारी जातीयता कि यात्रा. इसे हम फ़ाईलमबाजी कहते हैं. बिहार में कही भी जाएँ और अपनी जात का ज़िक्र न हो तो शायद बिहार अधूरा ही रह जाये. हर ओर बिहार की तरक्की गूँज रही है मगर आज भी यहाँ सबसे ज्यादा बोलबाला समाज के जातीय बनावट का ही है. इस बात की पुष्टि मुझे कॉलेज के उस पहले ही दिन मिल गयी. खैर फाईलम बता कर हमे कुछ बौस समजातीय मिल गए जिन्होंने हमे वहा की रैगिंग से छुटकारा दिला दिया. उसके बाद शुरू हुआ अपने बैच में अपनी फाईलम के लोगों को ढूंढना. लड़के और लड़कियां दोनों. पहले एक मिला, उसने दुसरे से मिलवाया फिर तीसरे से और इस प्रकार हमारे फाईलम के सभी लोग बैच में मिल गए. इसी क्रम में हमारी 'उनसे' पहली मुलाक़ात हुई. वो पहली ही दिन कॉलेज आई थी. दो और लड़कियां उसे लेकर हम लड़को के पास आई, ये बताने कि ये भी हमारी ही फाईलम की है और वही हुई हमारी पहली मुलाक़ात. हमने भी बड़े शान से पूछ लिया, " ओह, तुम भी अपनी ही फाईलम हो." अपनी मीठी सी जुबान से उसने जवाब दिया, 'हाँ.' बस यही थी हमारी पहली वार्तालाप.

अच्छा डाक्टर बनने के लिए मन में जो विश्वास
लड़कियों के खिलाफ बनाया था वो तब भी जारी था. पढाई पर ध्यान लगाना और लड़कियों को दूर रखने के लिए बेजा हरकतें करना हमारी आदत और फिर एक पहचान बन गयी. इन सब बातों में मैं उस पहली मुलाक़ात को कही भूल ही गया. शुरुआत में उसकी तरफ कोई आकर्षण भी नहीं हुआ करता था और न ही कोई अनायास बातचीत. वो अपने रास्ते चलती थी, मैं अपने. सपने में भी कभी नहीं सोचा था कि हम कभी इतने करीब आयेंगे जितना आज हैं. सच पुछो तो याद नहीं कि फिर कब उस से दुबारा बात हुई थी.

वक़्त गुजरता गया, धीरे धीरे एक सेमेस्टर भी बीत गया. तब तक रैगिंग ख़त्म हो चुका था और फ़ाईलमबाजी के नाते एक-आध बार और हमारी बात हो चुकी थी. मेडिकल कॉलेज कि थोड़ी हवा हमें भी लग चुकी थी और लड़कियों की हमेशा खिलाफत करने वाला मैं थोड़ा नरम हो चुका था. बदलाव अभी जारी ही था और धीरे धीरे दिल और पिघल रहा था. २-३ लड़कियों से काफी बातें होने लगी थी और उनके वाया ही कभी कभार हमारी 'उनसे' भी बात हो जाया करती थी. धीरे धीरे बातों का दौड़ कैन्टीन तक चलने लगा. उसकी वो मुस्कराहट, वो भोलापन, वो सादगी, वो बचपना सब धीरे धीरे मन को भाने लगा. उस के साथ वक़्त गुजारना अच्छा लगने लगा. मन ही मन में वो चाहत शायद फूट चुकी थी जिसका एहसास मुझे पहली मर्तबा उस से उसके जन्मदिन के दिन फ़ोन पर बात करने के बाद हुआ.

इस एहसास को उसे बयां करने में 4 महीने लग गए. 25 सितम्बर की वो सुबह मुझे आज भी याद है. हम सड़क पर मिले. दोस्तों की बदौलत उसे मेरे मन की बात पता चल चुकी थी और मुझे भी पता चल चुका था कि मन ही मन में वो भी मुझे चाहती थी. फिर क्या था हो गयी बात. मैंने उसे बड़े ही रोब के साथ कहाँ, "देखो तुम सब कुछ जानबे करती हो कि मेरे मन में क्या है और हमको भी तुम्हरे बारे में पते है. तुमको कोई प्रॉब्लम नहीं हमको भी कोई दिक्कत नहीं. तो चलो और बात ही क्या करना है, हो गया बात, क्या?" और फिर एक बार वो ही मिठास भरी आवाज में उसका जवाब था, "हाँ." वो पहली मुलाक़ात की 'हाँ' और इस 'हाँ' में कोई फर्क न होते हुए भी कितना बड़ा फर्क था. आज भी उसकी इसी एक 'हाँ' के तो हम दीवाने हैं....................



Saturday, January 23, 2010

सही हुआ पाकिस्तानियों के साथ!

इन दिनों क्रिकेट के गलियारों में अगर किसी खबर ने सुर्खियाँ बटोरी है तो वो है IPL कि नीलामी में पाकिस्तानियों का न लिया जाना। IPL का तीसरा संस्करण शुरु होने वाला है और इसके लिए तैयारियां भी जोड़ों से चल रही है। खिलाड़ियों की नीलामी भी इन्ही तैयारियों का एक हिस्सा थी। IPL फ़्रैंचाईजी टीमों के मालिक अपनी अपनी टीम के लिए नामी-गिरामी खिलाडियों की बोली लगा रहे थे। पुरानी हिंदी फिल्मों में कई बार नीलामी के सीन देखने को मिल जाया करते थे। हीरो का परिवार कर्ज नहीं चुका पाता था और जालिम सेठ उसकी सारी संपत्ति को नीलाम करके अपना कर्ज वसूल कर लिया करते थे। कहीं कोई आश्चर्य नहीं होता था, आखिर नीलामी में बिकते तो सामान ही थे; सामान, जो बिकने और खरीदने के लिए ही बने होते थे। यहाँ IPL की नीलामी में बोली उसी तरह लग रही थी मगर फर्क इतना था कि बोली सामानों की नहीं बल्कि इंसानों की लग रही थी। कभी सोचता हूँ तो लगता है कि क्या यहाँ कोई फर्क था। व्यवसायीकरण के इस युग में जहां हर चीज का वस्तुकरण हो रहा है वहां इंसानों को भी सामान समझा जाना उन फ़्रैंचाईजी मालिकों के लिए शायद गलत नहीं है। खैर, ये खुद में एक मुद्दा है जिसकी चर्चा कभी बाद में करूँगा।
इसी नीलामी के ख़त्म होने के पहले ही एक अलग ही मुद्दा जोड़ पकड़ चुका था। 13 में से एक भी पाकिस्तानी खिलाड़ी को नहीं ख़रीदा गया था। कोई इसका कारण इन खिलाड़ियों के लिए वीसा मिलने में होने वाली दिक्कतों को बता रहा था तो कोई आरोप IPL प्रशासन की ओर लगा रहा था कि उनके आदेश के अनुरूप ही किसी टीम ने इन खिलाड़ियों के लिए बोली तक नहीं लगायी। कोई तो यहाँ तक कह रहा था कि ये सब भारत सरकार की ही करनी थी। जितने मुंह उतनी बातें। सच क्या है और झूठ क्या इसका पता हम जैसे क्रिकेट प्रेमियों को कभी नहीं चल पायेगा। देखा जाये तो जानने कि जरूरत भी नहीं है। तात्कालिक कारण कुछ भी हो, जड़ में तो भारत-पकिस्तान के बिगड़ते रिश्ते ही हैं। कितनी बार इस बदलते-बिगड़ते रिश्ते ने इन दो मुल्कों के बीच क्रिकेट-संबंधों पर पानी फेरा है, इसका तो हिसाब लगा पाना भी मुश्किल हो चला है। एक और बार सही।
नीलामी हुई, नीलामी में वे खिलाड़ी नहीं चुने गए। इनके साथ 30 और खिलाडी नहीं चुने गए। किसी ने कोई आवाज़ नहीं उठाई। पाकिस्तानियों का गुस्सा फूट पड़ा। भारत सरकार और क्रिकेट बोर्ड दोनों पर आरोप पर आरोप लगाये जाने लगे। रमीज़ राजा साहब को तो जैसे रोज़गार ही मिल गया। पिछले एक हफ्ते से वे सभी न्यूज़ चैनल पर छाये हुए हैं। आफरीदी औस्ट्रैलिया में हार रहे हैं फिर भी दिमाग में IPL की नीलामी ही चल रही है। कहते हैं कि उनकी कौम का अपमान हुआ है। अरे काहे कि कौम आफरीदी साहब! ये आपका यही कौम था जिसने कराची में खेलने गए हुए श्रीलंकाई खिलाड़ियों के ऊपर गोले दागे थे। क्या बिगाड़ा था उन खिलाड़ियों ने आपकी कौम का?
सोचता हूँ अगर IPL में इतना पैसा छिपा रहता तो भी क्या पाकिस्तानी इतनी ही मार करते यहाँ खेलने के लिएबिल्कुल नहींक्रिकेट को पूछ कौन रहा है, यहाँ तो सबको पैसे कि पड़ी है। करोड़ों कमाने का एक आसान तरीका भारत ने पाकिस्तानियों के हाथ से छीन लिया हैकोई ज्यादती नहीं कीपैसे कमाना है कमाओ अपने मुल्क मेंसाल भर से एक भी मुकाबला तो करवा नहीं पाए अपने मुल्क में और मरे जा रहे हैं भारत के घरेलू मुकाबले में खेलने के लिए
मैं ये मान लेने को भी तैयार हूँ कि भारत ने जानभूझ कर ही इन पाकिस्तानी खिलाड़ियों को IPL का हिस्सा न बन पाने के लिए ये सब किया है। अगर कोई कहे कि ये मुंबई पर हुए हमले के कारण है तो शायद मैं कहू कि तब ये गलत है मगर पकिस्तान में हमले सिर्फ आम लोगो पर ही नहीं हुए हैं। वहां हमले क्रिकेट खिलाड़ियों पर भी हो चुके हैं। उस हमले को श्रीलन्काइओं से ज्यादा कोई समझ भी नहीं सकता। अगर उस हमले की सजा भारत के एक घरेलु टुर्नामेंट में न खेल पाने के रूप में पाकिस्तानियों को मिल रही है तो क्या ज्यादती हो रही है उनके साथ। है औकात तो करा लें खुद के यहाँ एक PPL और आराम से खेलें वहां। जितनी इज्ज़त मिलनी थी भारत में मिल चुकी पाकिस्तानियों को। इतनी बार पीठ में छुरा घुप चुका है कि अब उसके लिए भी एक भी जगह नहीं बची है। कुछ भी गलत नहीं हुआ है उनके साथ। उन्हें अपनी करनी की ही सजा मिल रही है और कुछ नहीं। जिसकी भी सोच हो पाकिस्तानियों को IPL से अलग रखने की, उसने बिल्कुल सही किया है। मेरी और से शत शत धन्यवाद!!!

Thursday, January 21, 2010

बिहारी होने का अफ़सोस करूँ या हिन्दुस्तानी होने का ग़म

कल समाचारों में ब्रेकिंग न्यूज़ आ रहा था, महाराष्ट्र में टैक्सी परमिट के सम्बन्ध में। टैक्सी परमिट के लिए मराठी बोलने, समझने, और पढ़ने की अनिवार्यता के साथ १५ साल से महाराष्ट्र का निवासी होना भी आवश्यक कर दिया गया था। दूसरा ही समाचार ऑस्ट्रेलिया से आ रहा था। भारतीयों पर एक और हमला हुआ था वहाँ। लोग इस पोस्ट का title पढ़कर समझ ही गए होंगे कि इन दोनों समाचारों का ज़िक्र यहाँ पर क्यूँ किया गया है।
ऑस्ट्रेलिया में भारतीयों पर हो रहे जुर्म की गाथा अब कई महीने पुरानी हो चली है। एक पर एक समाचार आ रहे हैं। विदेश मंत्रालय बार-बार दिलासा दिलाने में लगा हुआ है। न्यूज़ चैनल भी भिड़े हुए हैं ऑस्ट्रेलिया की छवि को यहाँ के 'होने-वाले-प्रवासियों' के मनों में धूमिल करने में। कोई एक भी कसर नहीं छोड़ रहा। सब अपनी औकात से इस खबर को सनसनीखेज बनाने में लगे हुए हैं। प्रथम-दृष्ट्या मुझे भी आश्चर्य हुआ एवं ख़राब लगा कि ये हम हिन्दुस्तानियों के साथ क्या हो रहा है विदेशो में। अचानक से ये अंतर क्यूँ आ गया। कुछ साल पहले ऐसी ही घटनाएँ अमेरिका और यूरोप में भी घट रही थी। वो मामले अब शांत हो चुके हैं और आशा है कि ऑस्ट्रेलिया वाला मामला भी शांत हो ही जायेगा। मगर सोचने वाली बात ये जरूर है कि क्या सच में ऐसी घटनाएँ भारतीय विशेष पर हो रही हैं या ये उस देश की एक साधारण लचर कानून व्यवस्था है जो इस रूप में सामने आ रही है। हो सकता है वहाँ हिंदुस्तानियों के अलावा और भी देश के लोगो के साथ ऐसा हो रहा हो या फिर खुद वहाँ के लोगो के साथ भी ऐसा हो रहा हो। वो खबरे शायद हमतक पहुचती भी नहीं हैं इस लिए हम इसे भारत विरोधी मान कर हाय तौबा मचा रहे हैं। अब अपने देश को ही ले लीजिये। दिल्ली में आये दिन किसी विदेशी लड़की का बलात्कार हो जाता है। कुछ हफ्ते पहले ही गोवा में एक रूसी लड़की के बलात्कार की खबर आई थी। उसे लेकर रूस में भी ऐसा ही बवाल मचा होगा जैसा भारत में ऑस्ट्रेलिया की खबरों को लेकर मच रहा है। मगर क्या इसका मतलब ये है कि हम रूस-विरोधी हो गए हैं। कतई नहीं।
खैर आज इस पोस्ट को लिखने का मेरा मकसद विदेशो में हो रहे भारतीयों पर अत्याचार के बारे में ही लिखना नहीं है। आज यहाँ पर मैं भारत और बिहार के बीच एक समानता की रेखा खीचना चाह रहा हूँ। जो कुछ भारतीयों के साथ विदेशो में हो रहा है वो सब कुछ क्या हम बिहारी अपने देश में ही नहीं झेलते। शिव सेना और अब उनके साथ महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने महाराष्ट्र में मराठी मानुष के हकों के नाम पर बिहारियों या यूँ कहे हिंदी-भाषियों पर जो कहर ढाए हैं उनकी प्रति मिलना नामुमकिन ही लगती है। मगर ज़रा नजर दौडाएंगे तो पाएंगे कि सिर्फ महाराष्ट्र में ही ऐसा नहीं हो रहा। हम बिहारी मजदूरों के रूप में पंजाब में पिट रहे हैं तो छात्रों के रूप में असम में। चैन से हमें कोई नहीं जीने दे रहा. उत्तर भारत हो या दक्षिण, गुजरती हमपर वही सब है जो महारष्ट्र में।
कही न कही भारत और बिहार में समानता तो जरूर है. आज विश्व मंदी के इस दौड़ में भारत की और मुंह बाए खड़ा है, उम्मीद लगाये हुए। देश में बिहार की इज्ज़त भी बढ़ रही है। अब हम बिहारियों को भी इज्ज़त की नजरो से देखा जा रहा है। हम बिहारियों के लिए लोगो की आवाज़ में अचानक एक बदलाव आ चुका है जो दिख रहा है। कुछ ऐसा ही भारत के साथ विश्व मंच पर भी हो रहा है। भारतीयों के लिए दुनिया भर के लोगो के मनों में इज्ज़त बढ़ रही है। देश के अन्दर बिहार तीव्र गति से आगे बढ़ रहा है तो बाहर वैश्विक स्तर पर भारत की प्रगति का कोई जोड़ नहीं। इन सब के साथ भारत और बिहार में एक और समानता भी है। बिहारी देश के अन्दर दूसरे प्रांतो में पिट रहे हैं तो भारतियों को विदेशो में हिंसा का सामना करना पर रहा है। सोचता हूँ अगर कोई मराठी है तो उसे तो बस इस बात का ही दुःख उठाना है की भारतीय विदेशों में असुरक्षित हैं। हम बिहारियों को तो यहाँ double झटके मिलते हैं। समझ में नहीं आता की भारतीय होकर विदेशो में पिटने का गम मनाउँ या बिहारी होकर अपने ही देश में अपमानित होने का दंश झेलू।
लानत है हर उस आदमी पर जिसने ऑस्ट्रेलिया में हो रहे हमलों की निंदा की है और कभी बिहारियों पर हो रहे जुर्म की तरफ देखा तक नहीं है। अरे दूसरो के द्वारा किया गया अन्याय अपने देशवासियों के द्वारा दिए गए ग़मों के आगे कहाँ ठहरता है। मन तो बस इतना ही सोचता है कि बिहारी होने का अफ़सोस करूँ या हिन्दुस्तानी होने का गम!

Sunday, January 17, 2010

Facebook latest abuse: What colour's your bra??

Almost a week back, I witnessed quite an interesting flood of status messages from my female friends at facebook. I think most of you who use facebook must be knowing this. The status messages consisted of just one word, a colour. There was black, there was white, golden, red, and many others. I was a bit confused what exactly that was. I even asked one of them as to what that is but no reply came. The next day I saw an article in The Times Of India about it telling that all this followed a series of mails asking women and girls for writing the colour of their bra in order to spread awareness about breast carcinoma. The mail asked to write down just one word, the colour, and nothing else.
In a way, I was shocked reading the news in the daily. I don't know what kind of an organisation this was that initiated this move. I learned about it being an american NGO or something but does it really matter. There has been so many fruitful programmes on raising the awareness of this deadly disease, breast cancer. Can a campaign like this really do some good in this regard?
I don't really understand what kind of awareness could these colours raise but it certainly managed to give me much insight into female undergarments. I didn't know that a golden bra also comes in the market. There were many other colours too that I didn't know about. Certainly, it did arose some awarenesss for me (and many others like me). Some of us were even commenting on such colours. Some comments read like 'wow!', 'hot!', 'ooooohhhhhhhh!' and many others depicting the lusty expressions of the mankind. Was the campaign meant for comments like that. Isn't it a disgusting way of promoting something that is too important an issue?
The limit was crossed when some staus messages started coming saying 'nothing.' Such messages were flooded with highest number of comments showing in all respect what regards we boys have for that part of a female's body. I won't say that we boys are not guilty of throwing in such comments, we really are. But are not the girls guilty as much? What exactly do they want to propagate about the cancer by telling their bra's colour. I would have certainly felt a lot embarrassed if I had seen a status message like that one from my sister.
For me, the colour of undergarments in no way provoke any idea inside me for the disease. What could it do at the most was make me a little horny and nothing else. I don't want to be a 'moral police' here neither I want to act like one. I am not saying that it in any way is violating the element of decency in the society. Everybody has a right to express themselves, that they can do in any way of their likings. Maybe, this is what they were doing. Not all the girls on facebook were busy writing in such status messages. There were many who avoided it.
My only point lies in that what kind of an expression was it to tell the colour of your bra to the public. It didn't provoke anybody to form a fan club or community on facebook to fight against breast cancer. What it did provoke was a fan club named "I Really Dont Care What Color Your Bra Is." Now is it not evident enough of what kind of an idea it provoked in people's mind. Everybody has an idea of their own to do something. It lies only on the conscience of the followers to look into the matter, think over it and when it seems followable, then do follow it. May be one day I will see somebody posting a half-nude picture of herself on facebook and saying this is to raise the awareness about breast cancer and for that matter, I would certainly hope nobody raises her voice for cervical or vaginal cancer. We won't be able to tolerate that.
I want to put again my point very clearly that I am not against a move meant to raise awareness about any disease. Being a medical student, I have seen people dying of such diseases; diseases from which people could have been saved with early diagnosis and prompt treatment. I would welcome anything that in reality raises some awareness for this disease. I only hope that people don't indulge in something that is meaningless, disgraceful or in anyway hurting to somebody (like the brothers and fathers who must have felt emabarrassed with such messages). Hopeful for some meaningful use of facebook next time!!!

{NOTE: The link to the TOI article shows only a part of the published article. I couldn't find the full article on web. One can see the bottom of front page of TOI, 8th Jan. isssue.}

गुरु-शिष्य: बदलते रिश्ते!

बहुत पहले की बात है. पापा के साथ किन्हीं के घर गया था. मालूम नहीं था कौन थे वो. अभी भी अच्छी तरह से नहीं याद. पापा ने बताया था उनके कोई शिक्षक थे. कोई ४० साल पुराने. सुनकर बड़ा अजीब लगा था. ४० साल पुराने शिक्षक के साथ सम्बन्ध आज भी बने हुए थे. शिक्षक और शिष्यों के बीच रहने वाले सम्बन्ध के बारे में कई बार पापा बता चुके थे. किस्सा सुनाया करते थे कुछ शिक्षकों का जिनके सड़क से गुजरने वक़्त उनके शिष्य साइकिल से उतरकर किनारे खड़े हो जाया करते थे.

अक्सर सुनता आया हूँ किस तरह पुराने दिनों में शिक्षकों को सम्मान मिला करता था. आज मै भी कॉलेज का विद्यार्थी हूँ. कुछ सालो में शायद खुद भी शिक्षक बन जाऊँगा. जब उन सारे कहानियों के बारे में सोचता हूँ तो यही लगता है कि क्या वो सारी बाते सच में कहानियों तक ही सीमित रह गयी हैं. आज के समय में हम अपने शिक्षकों को वो सम्मान तो बिल्कुल ही नहीं दे रहे और ये आशा रखना कि हमारे शिक्षक बनने पर हमें वो सम्मान मिलेगा, ये बेमानी ही होगी.

वो समय कुछ और था जब शायद लोग गुरु जी को उनके नाम से पुकारते तक नहीं थे. मास्टर साहब बोल कर ही काम चलाया जाता था. कोई दबाव नहीं था मास्टर साहब बोलने का. बात अंतरात्मा से ही निकलती थी. उसके बाद समय आया जब गुरु जी को नाम से पुकारा जाने लगा. नाम के आगे सर या मैडम लगा दिया जाता था जो सम्मानसूचक हुआ करते थे. अगर मात्रा में देखा जाए तो सम्मान पहले से कमा था मगर फिर भी एक critical value से ऊपर ही था. आज का समय है. हम अपने गुरु जी को न नाम से पुकारते हैं ना ही सर या मैडम जैसे कोई संबोधन का प्रयोग करते हैं. आज के समय में झा जी झउआ बन गए हैं, सिंह जी सिंघवा, मंडल जी मंडलवा और तिवारी जी तिवरिया. जिनके उपनाम ऐसे हैं जिन्हें इस प्रकार से सुशोभित नहीं किया जा सकता उन लोगो के नामो का ही उपयोग कर लिया जाता है. सुधीर सुधिरवा बन जाते हैं और रीता रितिया. कुछ लोगो के नाम ऐसे होते हैं जिसके किसी भाग को ही इस तरह सुशोभित करना मुश्किल ये विचारनीय. बात है वाले गुरुओं के लिए सरवा या मैडमिया ही काफी होता है. ऐसे संबोधन मात्र से पता चल सकता है कि हम आज के समय में कितना सम्मान अपने ग्रोन के लिए रखते हैं.

बदलाव आया है. गुरु-शिष्य संबंधों में गिरावट ही आई है. अगर थोड़ी अतिशयोक्ति कि इजाज़त दी जाये तो ये कहना चाहूँगा कि गुरु-शिष्य सम्बन्ध अब नदारद ही हो चुके हैं. बदलाव सच में आया है जो गिरावट के शक्ल में दिख रहा है. अब बदलाव आया है तो कुछ कारण तो होगा ही. परिवर्तन संसार का नियम है; गीता के इस दर्शन का उपयोग मात्र कर के ही हम इस बदलाव को परिभाषित नहीं कर सकते. कही न कही कुछ अंतर तो हुआ जरूर है. ये शिक्षको के बदलते स्तर से जुड़ा है या विद्यार्थियों कि बदलती सोच से ये विचारणीय बात है.

पहले के समय में जो गुरु जी हुआ करते थे उनके पास ज्ञान का भण्डार हुआ करता था. ऐसा नहीं है कि आज के समय में शिक्षको को ज्ञान की कमी है, मगर उस ज्ञान को बाटने कि क्षमता और योग्यता जितनी पुराने शिक्षको में थी उतनी शायद आज नहीं रह गयी है. विद्यार्थी भी शायद अब पहले से ज्यादा आज़ाद हो गए हैं. Competition के इस युग में शायद उनकी निर्भरता अपने शिक्षको पर से कम गयी है. self-study का बोलबाला बढ़ गया है और इसके फैलने से शिक्षको कि महत्ता में खासी कमी आ गयी है.

सम्मान उनके लिए ही मन में आता है जो कि हमारे लिए कुछ सकारात्मक लेकर आते हैं. मानव स्वभाव है ये. हम उनको ही सम्मान देते हैं जिनसे हमें कुछ फायदा होता है.आज के समय में विद्यार्थियों को शायद शिक्षको से कोई फायदा नहीं मिल रहा. भाग दौड़ के इस युग में सब एक रेस में लगे हुए हैं. आगे निकल जाने की, सब को पछार देने की एक होड़ लगी हुई है. इस होड़ में विद्यार्थी को खुद से ज्यादा किसी पर भरोसा नहीं है. देखा जाए तो ये गलत भी नहीं है. खुद से ज्यादा वैसे भी किसी पर भरोसा नहीं करना चाहिए. अपने तकदीर के निर्धारक हम खुद हैं. इसे निर्धारित करने के लिए हमें किसी की जरूरत नहीं. ये कह कर शायद मैं विद्यार्थियों को justify कर रहा हूँ. शायद मैं यही कह रहा हूँ की दोष किसी का नहीं है, समय की आवश्यकता है ये बदलाव. हो सकता है आज मै एक विद्यार्थी हूँ और इसी हैसियत से ही लिख रहा हूँ. इसलिए विद्यार्थियों के पक्ष में ज्यादा लिखा है. कुछ साल बाद जब खुद एक शिक्षक बनू तो शायद उचित सम्मान न मिल पाने की झुंझलाहट में इसी ब्लॉग पर शिक्षको की और से भी कुछ विचार लिख सकू। खैर अभी के लिए इतने पर ही विचार काफी है।

Tuesday, January 12, 2010

ये मैं हूँ, एक हिन्दुस्तानी!

आज बड़े भाई का जन्मदिन है। माँ को लेकर महावीर मंदिर गया था। पटना जंक्शन पर जो भी आये होंगे उन्होंने बहार निकलने के बाद भूके-नंगे भिकडियोँ के अलावा सबसे पहले इस मंदिर को ही देखा होगा। थोड़ा और आगे जायेंगे तो चौराहे पर चाचा नेहरु खडे मिलेंगे। हाथ में सफ़ेद कबूतर लिए हुए। जब से होश संभाला है चाचा को वही खड़ा पाया है। बचपन में सोचता था कि शायद नेहरु जी को कबूतरों से बहुत लगाव था इसलिए उसे लेकर खड़े हैं। बाद में कबूतर उड़ाने का सही मतलब समझ आया। पहले देखने का नजरिया ही नहीं था। २३ साल इस दुनिया में भटका तो थोड़ी बहुत परिपक्वता आई और अब किसी भी चीज को देखता हूँ तो सोचने को मजबूर हो जाता हूँ। थोड़ा अवलोकन और थोड़ा विश्लेषण समय के साथ आदमी सीख ही जाता है। अभी समय और भी है इसलिए सीखने कि प्रक्रिया चलती ही रहेगी।
२ महीने पहले उसी चौराहे को १४ नवम्बर कि तैयारी के लिए काफी सजाया गया था। चाचा को नहलाया धुलाया गया था। शायद चेहरे को पोलिश भी किया गया हो। चाचा चमक रहे थे। जीवंत प्रतीत हो रहे थे। फूल मालाएं पहनाई गयी, बल्ब-रोशनियाँ लगायी गयी थी। आज दो महीने बाद उसी प्रतिमा में वो फूल-मालाएं वैसे ही लटके हुए थे। फर्क इतना था कि वे अब सूख चुके थे। चमकता चेहरा अब धूमिल हो गया था और चिड़ियों के प्रसाद से सुशोभित हो रहा था। ज्यादा बताने कि जरुरत नहीं कि वो प्रसाद क्या है। चाह रहा था कि एक तस्वीर भी लगा सकूँ इस ब्लॉग पर मगर साथ में कैमरा न था। शायद बाद में कभी लगाऊं। वैसे लगाने कि जरुरत भी नहीं है। ये कोई नयी बात नहीं है। विशेषतया पटना की बात हो या नेहरु की मूर्ति के साथ ही ऐसा होता हो, ये भी नहीं है। ये तस्वीर भारत के हर शहर हर गाँव की है। हर महान व्यक्ति के साथ यही सुलूक होता है।
कुछ दिन पहले केन्द्रीय राज्य मत्री श्री शशि थरूर ने नेहरु जी के विदेश नीति पे कुछ टिपण्णी की थी जो हमारे राजनेताओं को पसंद नहीं आई थी। अखबारों ने उस टिप्पणी को काफी तवज्जो दी थी। पहले पन्ने का बड़ा भाग उस खबर को गया था। थरूर जी को इस टिप्पणी के लिए प्रधान मंत्री को स्पष्टीकरण भी देना पड़ा।
ये अलग मामला है कि क्या थरूर सही थे। विस्तार में बाद में कभी। मगर यहाँ ये जरूर कहना चाहता हूँ कि समय के साथ सब बदलता है। आन्तरिक नीतियों को न भी बदला जाये तो कोई बात नहीं मगर विदेश नीतियाँ समय के अनुसार ही चलनी चाहिए क्यूंकि उनके निर्धारक सिर्फ हम नहीं बल्कि "विदेश" भी है जो समय के साथ बदल रहे हैं। बहरहाल...
नेहरु जी कि उसी नीति की द्योतक यह प्रतिमा आज जिस हालत में शहर के बीचो बिच खड़ी है उसे देख कर यही लगता है कि राजनेताओं का वो नेहरु प्रेम कही न कही एक छलावा ही था। अखबारों को थरूर कि टिप्पणी पर टिप्पणी करने का समय आसानी से मिल गया मगर इस प्रतिमा तक किसी की नजर तक नहीं गयी। गयी भी हो तो क्या। इसमें मसाला कहाँ है, विवाद कहाँ है। मसाला नहीं, विवाद नहीं तो TRP नहीं। TRP नहीं तो न्यूज़ नहीं। आज की मीडिया TRP तक ही सीमित रह गयी है। समाज सुधारक का वो काम जो उनके जिम्मे है वो कही दूर रह गया है।
मीडिया को दोषी ठहराना और राजनेताओं के उदासीन रवैये पर ऐतराज जता देना ही क्या हमारा कर्त्तव्य है। क्या हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती। मुझको ही ले लीजिये। मैंने उस मूर्ति को देखा, देख कर सोचा। सोचा तो मन उदास हुआ। फिर भी मैं आगे बढ़ा। रुक नहीं सकता था, पीछे कि गाड़ियों के होर्न से कान फटा जा रहा था। घर लौटने कि तरफ आगे बढ़ा तो थोड़ी दूर पर एक ऑटो वाले ने गाड़ी के बिल्कुल करीब से ही अपना ऑटो आगे बढ़ा लिया। नेहरु जी कि शांति नीति के बारे में सोचते हुए कुछ सेकंड ही गुजरे थे, शायद मन में तब भी वही चल रहा था। मगर उस ऑटो वाले कि उस हरकत को देखते ही शांति गयी तेल लेने और दिल में उसके लिए सम्मान के दो चार शब्द (F... words वाले) अपने आप आ गए। आगे बढ़ता गया। गाड़ी का होर्न बजता गया। पैदल और रिक्शों को पिछाड़ता हुआ होर्न कि आवाज में मशगूल हो शांति को भूल ही गया।
ये मैं हूँ। मैं जो अपने आप को हिन्दुस्तानी कहता हूँ। भारत का मतलब नहीं जानता और कहता हूँ कि भारत महान है। सीना चौड़ा करके कहता हूँ I PROUD TO BE AN INDIAN! ये मैं हूँ, एक हिन्दुस्तानी!

Monday, January 11, 2010

कुछ यूँ ही!

काफी दिनों से ये ब्लॉग बिना किसी हलचल के रुका हुआ था। इन दिनों में कई ऐसे विषय सामने आये जिसपे कुछ लिखने का मन हुआ पर लिख न पाया। फिल्मो में रूचि होने के कारण ही शायद 3 Idiots इन सभी विषयों में सबसे ऊपर था। फिल्म देख कर काफी अच्छा लगा, खैर इसके बारे में बाद में विस्तार से कभी। इसी फिल्म कि कहानी को लेकर हुए विवाद पर भी कुछ लिखना चाहा था पर लिख न पाया। MBBS अंतिम वर्ष कि परीक्षा चल रही है और ये एक बड़ा कारण है कि मैं कुछ लिखने के प्रति ज्यादा समय नहीं दे पाया। मगर जहाँ तक समय देने की बात का सवाल है तो ये तर्क मेरे कुछ न लिखने के लिए कतई सही नही हो सकता क्यूंकि इसी बीच में मैंने अपने इसी ब्लॉग में कई तरह के बदलाव भी किये। हो सकता था कि इन बदलावों में लगाए गए समय को मैं किसी ज्यादा सृजनात्मक कार्य, जैसे ब्लॉग लिखने, में लगा सकता था मगर ब्लॉग लिखना मेरे लिए सिर्फ समय देना ही नहीं बल्कि अपनी सोच को शब्द देना भी है जिसमे दिमाग का काफी इस्तेमाल होता है। परीक्षा के समय पढ़ाई के अलावा दिमाग को कही और लगाना शायद अनुचित होता इसलिए मैंने न ही लिखने का निर्णय किया।
बहरहाल जैसा की मैंने पहले कहा की इन दिनों इस ब्लॉग पर कुछ बदलाव किये गए हैं जिनका ज्यादातर सम्बन्ध इसकी प्रतीति से ही है। ब्लॉग template के अलावा २-३ gadgets जोड़े गए हैं जिनका कोई ख़ास मतलब नहीं है मगर बस यूँ ही। आशा है ये बदलाव पढ़ने वालो को आकर्षित करेंगे।
परीक्षा के बावजूद भी कुछ समय इन्टरनेट के लिए निकल ही जाता था और आजकल इन्टरनेट पर प्राथमिकताओ में सबसे ऊपर twitter रहा। अपना twitter link दे रहा हूँ, अगर चाहें तो उस सफ़र में भी साथी बन सकते हैं। twitter के बारे में सबसे अच्छी जो चीज मुझे लगी वो है काफी कम समय में अपने विचारो को आप व्यक्त कर सकते हैं। मेरे जैसे लोगो के लिए जिन्हें ब्लॉग में ज्यादा समय दे पाना मुश्किल हो जाता है या जो आलस की वजह से कई बार कुछ विषयो पर लिखने की सोचने के बावजूद लिख नहीं पाते उनके लिए twitter का microblogging एक ज्यादा आरामदायक और संतोषजनक सफ़र है। ब्लॉग और tweet में टेस्ट क्रिकेट और २०-२० का ही सम्बन्ध है और टेस्ट क्रिकेट की तरह ही ब्लॉग भी सदा सभी की प्राथमिकताओं में ऊपर ही रहेंगे।
twitter के अलावा इन दिनों मेरा आकर्षण हिंदी ब्लॉग की तरफ भी कुछ बढ़ा। रविश कुमार और मनोज जी के ब्लॉग पढ़ के काफी अच्छा लगा। बिहारी होने के गर्व का एहसास हुआ और हिंदी में कुछ लिखने की प्रेरणा भी मिली। शायद आगे चलकर हिंदी में कुछ ज्यादा लिख सकूँगा और फिल्मों के अलावा भी कई विषयों पर अपने विचार रख पाऊँगा।