Tuesday, March 30, 2010

"मेरा जीवन कोरा कागज़, कोरा ही रह गया"

लिखना बहुत कुछ चाहता हूँ। लिखने को बातें भी ढेर सारी हैं मन में। मगर, कुछ हो गया है। किसी अपने से जब दिल दुःख जाये तो क्या हो? या उससे भी ज्यादा जब किसी अपने का दिल खुद दुखा दो तब क्या हो? आत्म-ग्लानि की एक रात यूँही करवटें बदलते बदलते कट गयी। मन में बहत कुछ है मगर इतना कुछ है कि उनमे से निकलकर बाहर आने के लिए शब्दों के लिए जगह नहीं बच रहे हैं। शब्द बन जरूर रहे हैं मगर उनसे अभिव्यक्ति हो जाए अपनी मनःस्थिति की ये संयोग नहीं बैठ पा रहा। सच में शब्दों के जरिये अपनी बात रख देना आज कितना मुश्किल लग रहा है। लग रहा है कि ये सिर्फ एक संयोग होता है कि आप सही सही अपनी बातों को अपने शब्दों के माध्यम से प्रस्तुत कर दें। आज जरूर वो संयोग बैठ नहीं पा रहा। कहीं न कहीं कोई ताकत तो जरूर है जो हमें इन शब्द-जाल से खेलने की प्रेरणा एवं शक्ति देती रहती है। आज वो ताकत कहीं ख़त्म हो गयी लग रही है।
कितनी आसानी से एक छोटी सी बात पर किसी से खफा हुआ जा सकता है और कितना मुश्किल हो जाता है तब एक -एक लम्हा, कितना भारी हो जाता है बिताना एक-एक पल। क्यूँ लगने लगता है कि कुछ भी नहीं रहा। दिमाग का कौन सा वो तार टूट जाता है कि हम रह जाते हैं बस मूक बनकर। कल रात से ही ये पोस्ट लिखने के लिए ये पेज खोल रखा है जाने कितनी बार कितने शब्द लिखकर वापस मिटा दिए हैंहर बार एक कोरा कागज़ ही बचा, और हर बार लगा कि यही तो है जो मैं लिखना चाह रहा हूँ। जी हाँ आज के पोस्ट पर सिर्फ एक कोरा कागज़!!!







































"जो लिखा था आंसुओं के संग बह गया!!!"

Thursday, March 25, 2010

कब तक आएँगी ऐसी टिप्पणियाँ?

हिंदी में ब्लॉग लिखने एवं पढने की शुरुआत इसी साल की शुरुआत से हुई है। कभी किसी का ब्लॉग पढता हूँ तो उस पर आई हुई टिप्पणियों को भी पढता हूँ। अपने पोस्ट पर भी यदा-कदा एकाध टिप्पणी आ जाती है। हिंदी ब्लॉग-जगत में अंग्रेजी ब्लॉग के मुकाबले एक अंतर पाया। हिंदी ब्लॉग की ज्यादातर टिप्पणियाँ पोस्ट के मुद्दे और उसके विषय से परे उसकी लिखावट पर जोर देती हुई लगती हैं। कोई 'सुन्दर आलेख' लिख देता है तो कोई 'nice' या 'अच्छा' लिखकर काम चला देता है। ये तो कुछ छोटे-छोटे उदाहरण थे। हिंदी ब्लॉग लिखने एवं पढने वालों ने इसे बखूबी अनुभव किया होगा। मेरा बस एक छोटा सा सवाल है कि क्या हम ब्लॉग सिर्फ इसलिए लिखते हैं कि कोई हमें हमारी लेखनी के लिए तारीफ़ करके निकल ले?
बचपन में स्कूल में हिंदी की क्लास में गुरूजी किसी विषय पर लेख लिखने को बोलते थे और जब उस लेख को पूरा करके उनके पास हम मूल्यांकन के लिए जाते थे तो कुछ इसी तरह वो भी हमारे लेख को 'सुन्दर', 'अच्छा' या 'बहुत अच्छा' इत्यादि विशेषणों से सुसज्जित कर दिया करते थे। यहाँ जब ब्लॉग लिखना शुरू किया और उसपर आने वाली टिप्पणियों का आकलन किया तो कुछ वैसा ही महसूस हुआ कि जैसे गुरूजी ने फिर से हमारा मूल्यांकन करना शुरू कर दिया है।
औरों के बारे में तो नहीं जानता मगर जहां तक मेरा सवाल है तो मैं ब्लॉग लिखता हूँ किसी विषय या किसी मुद्दे पर अपने विचारों को दुनिया के सामने प्रस्तुत करने के लिए। ये विचार अच्छे सुन्दर तरीके से रखे जाएँ इसकी कोशिश भी करता हूँ। मगर इसलिए नहीं कि इस सुन्दर तरीके को लोग पसंद करें लेकिन इसलिए कि जो लिखता हूँ वो सामने वाले तक आसानी से पहुँच सके। सुन्दर लेखनी का प्रयोग, मेरे हिसाब से, सिर्फ अपने विचार को व्यापक बनाने के लिए होना चाहिए।
टिप्पणियों के बारे में कुछ बातें हो रही हैं तो सबसे पहले समझने की जरुरत है कि आखिर आवश्यकता क्या है इन टिप्पणियों की। २-३ बातें हो सकती हैं। एक तो टिप्पणी से पता चलता है कि हाँ भाई मैंने आपका ब्लॉग पढ़ा, मगर ये एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता नहीं हो सकती। वैसे भी ज्यादातर लोग ब्लॉग पढ़कर भी कोई टिप्पणी बिना किये ही निकल लेते हैं। दूसरी बात हो सकती है ये बताने के लिए कि अमुक पोस्ट आपको कैसा लगा। यह कारण ही शायद अभी सबसे ज्यादा चलन में है। ज्यादातर लोग, जैसा मैंने पहले भी लिखा है, यही बताने में लगे रहते हैं कि उन्हें ब्लॉग कैसा लगा। मगर ज़रा एक बात पर ध्यान दीजिये कि क्या कभी किसी ने कहीं भी कोई ऐसी टिप्पणी पढ़ी है जिसमे लिखा हो कि ये अच्छा नहीं है। मैंने तो नहीं पढ़ा है अभी तक। अगर ऐसी किसी टिप्पणी की कोई जगह नहीं हमारे ब्लॉग-जगत में तो मैं मानता हूँ कि 'अच्छा' या 'सुन्दर' वाली टिप्पणी भी कोई मायने नहीं रखते।
तीसरी आवश्यकता जो मुझे लगती है टिप्पणी की वो है अमुक पोस्ट पर उठाये गए मुद्दों, सवालों, और विषयों पर अपनी राय देने की। कोई ब्लॉगर अपने विचार हमारे सामने प्रस्तुत करता है किसी ख़ास विषय पर और उसके उन विचारों से हम कितने सहमत हैं या असहमत हैं, इस बात को हम टिप्पणी के माध्यम से उनके सामने रख सकते हैं। उस ख़ास मुद्दे पर एक आम बहस का दौर चल सकता है ब्लॉग के माध्यम से। इस बहस का फायदा क्या होगा यह बताना ज़रा मुश्किल है मगर विचारों का आदान-प्रदान होगा इससे इनकार नहीं कर सकता। कई लोगों ने ब्लॉग का इस्तेमाल इसे एक भाषा मानकर किया है मगर क्या जबतक विचारों का कोई आदान-प्रदान न हो तब तक हम इसे भाषा की संज्ञा दे सकते हैं।
कोई अपने विचार यहाँ लिखता है और हम उसे सिर्फ उसकी लेखनी के आधार पर मूल्यांकन करके छोड़ दें तो क्या ये सही लगता है। क्या हमारा फ़र्ज़ नहीं बनता कि उसके द्वारा उठाये गए मुद्दे पर भी हमारा ध्यान जाये। खैर, बहुत बड़ी बड़ी बातें हो गयी आज। एक बार फिर से दिल दुखा देने वाली पोस्ट बनकर तैयार हो चुकी है। कई टिप्पणीकारों को शायद मेरी बात चुभ जाये, शायद कुछ लोग किसी भी तरह की टिप्पणी करना भी छोड़ दें मेरे पोस्ट पर। मगर अपने आप को इस ब्लॉग-जगत का सच्चा नागरिक मानते हुए अपना फ़र्ज़ समझता हूँ कि यदि कोई कमी महसूस हो तो उसे सबके सामने लाऊँ ताकि निदान हो सके। किसी को बुरा लगा हो तो माफ़ कर दें। आशा करता हूँ कि इस मुद्दे पर अपने विचारों से मुझे अवगत कराएँगे। धन्यवाद!

Friday, March 19, 2010

तिरुपति वाले बालाजी भगवान नहीं है!

पिछले पोस्ट पर अपनी यात्रा के बारे में कुछ बातें मैंने प्रस्तुत किया था। आज भी कुछ उसी यात्रा के बारे में लिखने जा रहा हूँ। अपनी यात्रा में एक दिन तिरुपति में भी बिताया। मकसद बालाजी के दर्शन का था। पिछली बार जब बंगलोर गया था तो दादी को लेकर तिरुपति भी गया था। बालाजी के दर्शन के साथ दादी को तीर्थ कराने का पुण्य पाने का मौका भी मिल गया था। इस बार भी कुछ ऐसी ही बात थी। इस बार साथ में चाचाजी थे।
पिछली बार जब दादी के साथ गया था, तब दर्शन में कोई दिक्कत नहीं हुई थी। वरिष्ठ नागरिकों के लिए एक अभिभावक के साथ जाकर दर्शन करने की सुविधा ट्रस्ट ने मुहय्या कराई हुई थी। उस सुविधा का लाभ उठाकर हमने बिना समय लगे बिना लाइन में लगे ही दर्शन कर लिए थे। इस बार ऐसी सुविधा नहीं मिल सकी थी। बंगलोर से भारतीय पर्यटन विभाग द्वारा पैकेज टूर कराया जाता है जिसमे आने जाने का भाडा और दर्शन में लगने वाले टिकट शामिल होते हैं। उसी टूर से हमलोग भी इस बार तिरुपति गए। और लोगों से तिरुपति में दर्शन के लिए लगने वाले लाइन और उसमे लगने वाले विभिन्न दामों के टिकट के बारे में सुन रखा था। पिछली बार इसका अनुभव न हो पाया मगर इस बार काफी नजदीक से इसका अनुभव हुआ।
पैकेज टूर में होने के कारण वहाँ लाइन में हमें VIP टिकट मिल गया था। पैकेज का हिस्सा होने के कारण सही दाम पता न चल सका मगर लाइन लगने के बाद पता चल गया कि हम 300 वाले लाइन से आगे थे। लाइन लग गए, अंदर घुसना शुरू भी हो गया। इसके बाद शुरू हुआ एक अप्रतिम तमाशा। हम अपने लाइन में जा रहे थे और बीच में कुछ 300 रुपये टिकट वाले लोग हमारी लाइन में घुसने का प्रयास करने लगे तो जो हाल मैंने देखा उसे देखकर मन वहीँ पर दर्शन के नाम से घृणित हो गया। ट्रस्ट के कुछ कर्मियों ने इस प्रकार उन लोगों को हमारे लाइन से हटाया जैसे किसी चोर-उचक्के को मारा जाता है। उनका लहजा ऐसा था जैसे वो उन लोगों को उनकी औकात बता रहे हों। मुंबई के डांस बार में जिस तरह फ़ोकट की दारु पी लेने वाले को औकात बताई जाती है, वैसा ही कुछ नजारा वहाँ देखने को मिला। तुरंत मन में एक ख्याल आया। जिस भगवान के दर्शन के लिए भक्तों को अपनी औकात सोचनी पड़े वो क्या सच में भगवान हैं। बचपन से सुनता आया हूँ कि भगवन सब के हैं, सब भगवान के सामने बराबर हैं। तिरुपति के उस लाइन में जो मैंने देखा, और कईयों ने भी देखा होगा, वो देखकर ऐसा लगा कि या तो जो अभी तक सुना है वो गलत है, झूठ है, या फिर वहाँ भगवान हैं ही नहीं। किसी भगवान के दरवाजे पर उसके भक्त को औकात नहीं याद दिलाई जा सकती।
ये तो एक छोटी सी घटना थी जो उस यात्रा के आरम्भ में ही हमारे साथ घटित हुई। ऐसी कई घटनाएँ जगह-जगह पर उन 3 घंटों में हमने अनुभव की। 3 घंटे की उस यात्रा में मुझे नहीं याद कि कभी मेरे मन में भक्ति की कोई भावना जग सकी हो, ऊपर से इस बात की गारंटी मैं देता हूँ कि अगर किसी के मन में शुरुआत में ये भावना रही भी होगी तो अंत तक वो भावनाएं छू-मंतर हो ही चुकी होंगी। ये कैसी अजब परम्परा है वहाँ की मालूम नहीं। हमारे यहाँ बचपन से सिखाया गया है कि भगवन के दर्शन यथासंभव भूखे पेट ही करने चाहिए। फलाहार के साथ थोड़ी छूट हमें मिल जाती थी मगर कभी ये नहीं सोचा था कि घर में पूजा पर बैठना है तो आराम से अनाज और नमक खा कर पूजा कर लेंगे। वहाँ ये भी देखा। घर से तो छोडिये, लाइन में लगे-लगे वहाँ समोसे, बिस्कुट बेचने वाले मिल जाते हैं और भक्त-जन बड़े चाव से खरीद-खरीद खाते हैं। लाइन लगाने के लिए विशेष व्यवस्था बनायीं गयी है जिसे 'Queue Complex' कहते हैं। उसमे चप्पल पहन कर जाना मना है मगर खाने के जूठे टुकड़े गिराना नहीं। ये सिर्फ बालाजी के यहाँ ही देखा है मैंने। किसी और भगवान के दर पर ऐसा नहीं देखा। एक बार फिर सोच में पड़ गया। जिसके दर्शन करने आया हूँ वो सच में भगवान हैं या नहीं।
एक पुराना गाना सुना था, 'नाच मेरी बुलबुल के पैसा मिलेगा।' कुछ साल पहले एक और गाना प्रचलति हुआ, 'पैसा फेंक, तमाशा देख।' बताने की जरुरत नहीं कि जिस नाच का ज़िक्र पहले गाने में हुआ है वो कोई शाष्त्रीय आदरणीय नृत्य नहीं है, न ही वो तमाशा है जिसका ज़िक्र दुसरे गाने में हुआ है। अगर ये गाने किसी भगवान के दर्शन के समय किसी को याद आ जाएँ तो आप उसे पागल या धर्म-भ्रष्ट ही कहेंगे। अगर इस बात को मानते हैं तो कहिये मुझे पागल, मानिए मुझे धर्म-भ्रष्ट। मगर जरा उस भगवान के बारे में भी सोचिये जिनके दर्शन के लिए जो जितने अधिक पैसे दे वो उतनी जल्दी दर्शन करे। 500 का टिकट लिया तो 3 घंटे लगेंगे, 300 में 6, 100 में बारह, तो 50 में 24 घंटे। अगर आपके पास कुछ भी नहीं तो शायद जिंदगी भर लाइन में ही लगे रहना पड़ जाए। ये कैसे भगवान हैं बालाजी। ये तमाशा नहीं तो और क्या। अमीर हो तो दर्शन होंगे, नहीं तो जाओ भांड में। पैसे देकर भगवान के दर्शन करना मेरे लिए तो अपच है। हाँ अगर मंदिर की सुंदरता देखने के लिए पैसे दिए जा रहे हैं तो कुछ बात हजम भी होती है। लेकिन अगर ऐसा है तो फिर क्या अंतर रह गया बालाजी के मंदिर और मुमताज़ के मकबरे में। कोई टिकट खरीद कर आसानी से इससे कम समय में ताज महल के दर्शन ही क्यूँ न कर ले।
यहाँ पर जो कुछ भी लिख रहा हूँ, ये सब शायद बालाजी के भक्तों को बुरा लगे। शायद कई लोग मुझे नास्तिक भी समझें। पहले अपने आप के बारे में ही बता देना चाहता हूँ। मैं पूर्णतया नास्तिक नहीं हूँ, और कहा जाए तो सही मायनों में पूरा आस्तिक भी नहीं। राम के अस्तित्व पर सवाल करता हूँ मगर रामायण पर नहीं। कृष्ण-लीलाओं की सच्चाई खोजता हूँ मगर भगवद-गीता के उपदेशों की नहीं। बस इतना मानता हूँ की ये राम और कृष्ण मानव-रचित कहानियों के पात्र हैं जिन्हें हमारे ऋषि-मुनियों ने रचा है ताकि हम उनसे प्रेरणा लेकर एक उच्च-जीवन बसर कर सकें। अगर इससे आप मुझे नास्तिक समझते हैं तो जरूर समझें। मगर इतना जरूर कहूँगा कि बालाजी की तरह अमीरों के दो-चार भगवान और मिल जाएँ तो सच में नास्तिक हो जाऊँगा। मुझे हिंदू धर्म पर अपनी आस्था का पूरा यकीन है। यही यकीन है जिसके बल पर ये कह रहा हूँ कि यदि तिरुपति वाले बालाजी ऐसे हैं तो वो भगवान नहीं हैं!

Thursday, March 18, 2010

भारत की विविधता- A Tale of two Cities!

काफी दिनों से इधर ब्लॉग-जगत से दूर रहा हूँ। कुछ पारिवारिक कारणों और यात्रा के कारण ब्लॉग के प्रति समय नहीं निकाल पाया। न ब्लॉग लिख सका हूँ न ही कोई ब्लॉग पढ़ पाया हूँ इस अंतराल में। हालांकि, वापस आये हुए आज 2 दिन हो गए मगर कुछ लिख नहीं पाया इस ब्लॉग पर। अपनी यात्रा का वृतांत घर वालों को बताने और छूटे हुए ब्लॉग पढ़ने में ही सारा समय निकल गया। अब समय ही समय है और आशा करता हूँ कि आगे ब्लॉग-यात्रा बिना रुकावट के जारी रहेगी। अधूरी छूटी हुई श्रंखला की की कड़ियाँ पेश करूँगा मगर उसके पहले इजाजत अपनी यात्रा के उन पहलुओं के बारे में बात करने की दी जाये जिन्होंने कुछ सोचने को मजबूर कर दिया।
8 तारीख को पटना से निकल कर 16 तारीख को यहाँ वापस पहुच गया। इन 8 दिनों में बंगलोर, तिरुपति और कलकत्ता की यात्रा हो गयी। बिताने को समय थोडा कम था इसलिए भागम-भाग थोड़ी ज्यादा हो गयी। वैसे सभी जगह इससे पहले भी जा चुका था इसलिए काम चल गया। इन ८ दिनों में कई चीजें देखने को मिली। सही मायनों में भारत में मौजूद विविधताओं के दर्शन हुए इस यात्रा में। सामजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, जलवायु, भूगोल, सभी चीजों में विविधताएं देखने को मिली। सही मायनों में कहूँ तो 'अनेकता में एकता' के सिद्धांत को प्रत्यक्ष रूप से अभी ही देख एवं समझ पाया। सच में हमारे देश में बात तो है!
बंगलोर और कलकत्ता दोनों भारत के गिने चुने मेट्रो शहरों में से हैं। दोनों विशाल हैं, दोनों विकसित हैं और सबसे बड़ी बात (जो आज की युवा पीढ़ी के लिए सबसे जरूरी बात है) कि दोनों मेट्रोपोलिटन हैं। एक जैसे होने के बावजूद दोनों में परस्पर एक जमीन-आसमान का फर्क है इसे इस बार मैंने महसूस किया। जहां बंगलोर आधुनिक भारत की उभरती हुई तस्वीर प्रकट करता है वहीँ कलकत्ता हमें हमारी जड़ों से जोड़ देता है। मेट्रो शहर होने के सारे पहलु दोनों जगह मौजूद हैं मगर फिर भी बंगलोर की तरह कलकत्ता में इसका एहसास कभी नहीं होता। कलकत्ता बड़ा अपना-अपना सा लगा। बंगलोर की अंधी दौड के सामने कलकता बिलकुल स्थिर लगा। बंगलोर की चकाचौंध से निकलकर चौन्धियाई आँखों को अपना सामान्य रूप कलकत्ता में ही मिला।
जो सारी चीजें बंगलोर में आलीशान लगी थी वो सारी चीजें कलकत्ता में मौजूद नहीं है मगर फिर भी कलकत्ता से उतना ही प्यार हुआ जितना बंगलोर से। ऐसा क्यूँ, शायद इस सवाल का जवाब मेरे पास नहीं मगर फिर भी सोचता हूँ तो लगता है, कहीं न कहीं इसका लेना-देना अपने देश की विविधता से ही है। देश में मौजूद विविधताओं की तरह हमारी चाहत भी विविध हो चुकी है। हमें कुछ भी अच्छा लग सकता है। कहीं शहर साफ़-सुथरा है तो वो भी अच्छा और कहीं गंदे सड़क दिख रहे हों तो उनमे भी अच्छाई। एक उदहारण देता हूँ। बंगलोर में हर जगह चमचमाते कांच के मकान देखे, बड़ा अच्छा लगा। लगा जैसे उन कांच में अपने भारत के चमकते भविष्य को देख रहा हूँ। मन खुश हुआ। कलकत्ता आया, वहा भी सुन्दर-सुन्दर इमारतें दिखीं। उन्ही इमारतों के साथ वाली इमारत पर जब नज़र पड़ी तो एक पुराना मकान था जिसके दीवारों पर पीपल के जड़ निकल आये थे। ये देख कर भी मन खुश हुआ। कम-से-कम इस शहर ने अपने भूत को तो बचा कर रखा हुआ है। आसानी से उस पीपल के जड़ को वहाँ से हटाया जा सकता था मगर ये कलकत्ता है, यहाँ ये नहीं होता। जड़ों को न हटा के कोई महान काम भी नहीं करता कलकत्ता, बस इस बात से आश्वस्त कर देता है कि भारत की सांस्कृतिक विरासत कभी मिट नहीं सकती। मैं ये नहीं कह रहा के जड़ों को न हटाना हमारी संस्कृति है। मैं बस इतना कह रहा हूँ कि ये सिर्फ एक द्योतक है उस सोच का, उस कवायद का, जो अपने भूत को बचाने के लिए कलकत्ता की आत्मा में खुद-ब-खुद चल रहा है।
मैंने दिल्ली भी देखा है, मुंबई भी। बंगलोर भी देख चुका हूँ। मगर ये बात जो कलकत्ता में दिखी शायद खोजने पर भी कहीं नहीं मिलेगी। जो दिल्ली मैंने १३ साल पहले देखा था और जो दिल्ली मैंने 5 साल पहले देखा था दोनों अलग थी। दिल्ली बदल रही है। जितना परिवर्तन उन 8 सालों में दिल्ली में देखा, शायद उसका 8 गुना पिछले 5 सालों में दिल्ली बदल गयी हो। कम-से-कम लोगों से सुन कर तो ऐसा ही लगता है। इतिहास में न जाने कितनी बार दिल्ली दुबारा बसाई गयी हो, हमने तो वर्तमान में ही दिल्ली को दुबारा बसते हुए देख लिया है। कुछ यही हाल मुंबई का भी है। मुंबई की आत्मा को छोड़ कर बाकी सब कुछ बदल गया।
जहां तक कलकत्ता का सवाल है तो नाम छोड़ कर कुछ भी नहीं बदला। जिस समय बाकी शहरों में चाय २ रुपये में आते थे कलकत्ता में एक अट्ठनी में भी चाय की दो चुस्की मिल जाती थी। हर नुक्कड़, हर चौराहे पर एक बूट पोलिश वाला और एक छोटी सी चाय की दुकान होती थी। वो वहाँ आज भी हैं। फूटपाथ पर आज भी उनका राज है। सड़कों पर पीली रंग की टैक्सी कल भी थी आज भी हैं। लकड़ी वाले बस कल भी थे, आज भी हैं, हाँ कुछ अच्छे AC बस भी चलने लगे हैं। जब बात ट्राम की आती है तो सबसे पहले कलकत्ता ही याद आता है। मालूम नहीं ट्राम से कोई फायदा किसी को होता भी है या नहीं, मगर जहां विरासत दाँव पर लग जाये वहाँ नफे-नुक्सान की कौन सोचता है। ट्राम को बचाए रखने के लिए कोई शहर अगर तैयार हो सकता था तो वो कलकत्ता ही था, किसी और में वो हिम्मत ही कहाँ थी।
कलकत्ता की विरासत को जिंदा देख कर जितनी खुशी हुई वहीँ बंगलोर में बदलते भारत की तस्वीर देख कर मन प्रसन्न हो गया। चौड़ी-चौड़ी सड़कें, सुन्दर-सुन्दर मकान, हरे-भरे बाग, लंबी-लंबी विदेशी गाडियां, बड़े-बड़े मौल सब कुछ तो हैं वहाँ जिसे देख कर सीना फूल जाए। जो मिश्रण बंगलोर की आधुनिकता और कलकत्ता की विरासत पैदा करती है वही हमारा असल भारत है। इन दो छोड़ों के बीच ही तो बसी है हमारे भारतवर्ष की आत्मा। है किसी भी मुल्क में औकात तो दिखा दे ऐसी विविधता अपने पास। आखिर हम ऐसे ही सर उठा कर नहीं कहते, "मेरा भारत महान!"