Wednesday, April 21, 2010

हाँ, मैं ही हूँ तुम्हारा मुजरिम

एक बार फिर से पोस्ट की शुरुआत माफ़ी से कर रहा हूँ। काफी कोशिश के बाद भी नियमितता नहीं बरत पा रहा हूँ अपने ब्लॉग के प्रति। डाक्टर बनने और इंटर्नशिप ड्यूटी शुरू होने के बाद से समय का जैसे अकाल ही पड़ गया है। अस्पताल में ड्यूटी के बाद जो समय बचता है उसका काफी हिस्सा पढाई की तरफ लगा देता हूँ। ब्लॉग के लिए कुछ विषय होने के बावजूद कुछ लिख नहीं पाया, शायद प्राथमिकता अभी बदल गयी है। समय बचे और थकावट न हो तो पढाई की ओर ही झुकाव रहता है। फिर भी, इधर पिछले हफ्ते में अगर सच में कोशिश करता तो शायद एकाध पोस्ट लिखे जा सकते थे। आज जिस घटना के बारे में लिखने जा रहा हूँ वो एक हफ्ते पहले मेरे सामने घटित हुई थी मगर उसका प्रभाव मेरे मानस-पटल पर शायद अभी तक है। अब काफी हद तक उबर चूका हूँ और यही कारण है कि आज पोस्ट लिख पा रहा हूँ।
बात पिछले गुरूवार की है। इमरजेंसी ड्यूटी थी लेबर रूम में रात में। शाम 7 बजे से लेकर सुबह 7 बजे तक। चूँकि ज़िन्दगी में पहली बार नाईट ड्यूटी कर रहा था, मन में उत्साह भी था और कौतूहल भी। एक नया अनुभव होने वाला था उस रात जो किसी भी डाक्टर की ज़िन्दगी का अभिन्न अंग है। पहले से सोच रखा था कि रात भर काम करना है सोना नहीं है। काम किया भी। पूरे 12 घंटे में एक सेकंड की भी झपकी नहीं ली। मन मुताबिक़ रात भर जगे हुए ही बैठे बैठे काट दिया था मैंने। मन का होने के बाद भी सुबह ख़ुशी नहीं थी अन्दर। एक दुःख, एक पीड़ा, एक ग्लानि, और एक गुस्सा था मन में जब वहाँ से निकल रहा था। एक घटना ने मुझे झकझोर दिया था।
रात के करीब 9 बजे एक मरीज प्रसव पीड़ा के साथ भर्ती हुई। उस मरीज को hepatitis B नाम की बीमारी थी जिसके संक्रमण का एक माध्यम खून होता है। ऐसे मरीजों के ओपरेशन के समय एक ख़ास तरह की पोशाक डाक्टरों को पहननी पड़ती है इस संक्रमण से बचने के लिए। अमूमन हमारे यहाँ, पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल, में वो पोशाक सरकार की तरफ से मुहैया करायी गयी रहती है। उस रात कुछ ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई कि O.T. में वैसी एक भी पोशाक उपलब्ध नहीं थी। जहां इमरजेंसी में किसी भी वक़्त ऐसे मरीज आ सकते हों और उस पोशाक की जरुरत कभी भी पड़ सकती हो, वहाँ एक भी पोशाक का उपलब्ध न होना आम बात नहीं थी। फिर भी मेरे साथ काम कर रहे सीनियर डाक्टरों का रवैया देख कर ऐसा लग रहा था कि जैसे रोज़ की बात हो।
O.T. में वैसी पोशाक की उपलब्धता की जिम्मेवारी अस्पताल के अधीक्षक की होती है जो O.T. में नियुक्त अपने कर्मचारी की मांग पर ये पोशाक उपलब्ध कराते हैं। हमने आनन-फानन में एक चिट्ठी उनके नाम लिख कर उसी वक़्त भिजवा दिया इस मांग को पूरा करने के लिए। करीब 2 घंटे के बाद अधीक्षक के कार्यालय से उस चिट्ठी का जवाब आया। जवाब में जहां हम पोशाक के आपूर्ति की आशा कर रहे थे, वहाँ एक सामान्य सा वाक्य आया। उसमे लिखा था, "Sister Incharge of the O.T. should be held responsible."
एक मरीज की जान जहां ओपरेशन के इंतज़ार में अटकी पड़ी हो वहाँ इस तरह का जवाब क्या दर्शाता है यह समझने के लिए डाक्टर होने की कोई जरुरत नहीं। रात के तकरीबन 12 बज चुके थे। अस्पताल के बाहर के दूकान से भी उस पोशाक को मरीज द्वारा खरीदवा लेने का हमारा प्रयास विफल हो चुका था। सारे दूकान बंद हो चुके थे जहां वो पोशाक मिल सकते थे। अधीक्षक की ओर से भी कोई प्रयास नज़र नहीं आ रहा था इस बाबत। सच बताऊँ तो अधीक्षक के कार्यप्रणाली को देखते हुए उनसे उम्मीद भी नहीं थी कि वो कुछ करेंगे। उम्मीद की एक आस थी अस्पताल में दुसरे O.T. जहां से वो पोशाक मिल सकते थे मगर उसके लिए हमें सुबह 5 बजे तक का इन्तेजार करना था जब वे खुलें और हमें वो पोशाक मिले।
उन 5 घंटों तक उस औरत की चीख-पुकार हमारे कानों में आती रही। इन सारी तकनीकी बातों से नासमझ मरीज के अभिभावक गिडगिडाते रहे हमारे सामने उसके ओपरेशन के लिए। डाक्टर होकर भी इस तरह की निर्दयता अपने मन में रखने का भी ये मेरा पहला ही अनुभव था। सुबह 5 बजे तक किसी तरह डांट-पीट कर हमने उन्हें टाले रखा। सुबह जब वो पोशाक हमारे पास आये तब तक काफी देर हो चुकी थी। अगर 10 मिनट और पहले ओपरेशन शुरू हो गया रहता तो शायद हम उस बच्चे की जान बचाने में सफल हो गए रहते। कोख से एक मरा हुआ बच्चा जब निकला तो दिल झल्ला उठा। चाहते हुए भी कुछ भी न कर पाने का मलाल हो रहा था और साथ में अस्पताल प्रशासन पर गुस्सा भी था जो अपनी गलती किसी और पर थोप कर चैन की नींद ले रहा था।
जब O.T. के बाहर निकला तो एक डर था कि किस तरह उन अभिभावकों का सामना करूंगा जो रात बार मिन्नत करते रह गए थे जल्दी ओपरेशन करने के लिए। बुरा भी लग रहा था और साथ में डर भी। जब बाहर निकला तो माहौल मन को झकझोर देने वाला था। उस आदमी ने एक उफ़ तक नहीं किया मेरे सामने। उस सदमे में उसने मुझसे कुछ भी नहीं कहा। अभी भी याद आ रही हैं मुझे वो आँखें जिनमे दुःख था, मगर आक्रोश नहीं था, गुस्सा नहीं था। उन आँखों में मेरे लिए कोई अनादर भी नहीं था फिर भी उन खामोश आँखों ने मुझे कह दिया था कि उनका मुजरिम मैं भी था। जब आप जानते हों कि आपकी गलती से किसी ने अपनी ज़िन्दगी की इतनी बड़ी ख़ुशी खो दी हो और वो आपके सामने कुछ भी बोले, ये काफी होता है आपको आपकी औकात बताने के लिए। यूँ खामोश रह कर उस आदमी ने मुझे मेरी औकात बता दी थी। 10 घंटे की कड़ी ड्यूटी के बाद जहां मैं अपने आप से खुश हो रहा था वहीँ इस एक घटना ने मुझे भीतर तक झकझोर दिया था।
उसके बाद के कुछ घंटे या सच कहूं तो आज तक समय आत्म-ग्लानि में ही कट गया। पहले सोच रहा था कि मेरी कोई गलती नहीं। दूसरों की तरह मैं भी गलतियां दूसरों पर थोप कर अपना पल्ला झाड रहा था। न जाने कितनी गालियाँ मैंने अधीक्षक महोदय को मन ही मन में दे दिया था। अस्पताल प्रशासन के प्रति मन में गुस्सा उबाल खा रहा था। सरकार के विकास के नारों से मन में ज्वालामुखी फट रहा था। फिर धीरे से दिमाग के किसी कोने में एक बात आई कि मैंने आखिर किया क्या उस जान को बचाने के लिए। क्या मेरे पास कुछ भी नहीं था करने को? क्या रात में उस जगह की दुकानों के बंद होने की सूरत में मैं प्रयास नहीं कर सकता था कहीं और से जाकर उस सामान को लाने की? साधन होने के बावजूद भी मैंने कोई प्रयास नहीं किया। रात भर अधीक्षक के उस जवाब की भर्त्सना मुक्त-कंठ से करता रहा मगर दिमाग में खुद कुछ करने की बात कभी नहीं आई।
आज भी जब उन अभिभावकों को देखता हूँ तो अपना रास्ता बदल लेता हूँ। नज़रें मिलाना तो दूर सामना करने की भी हिम्मत नहीं होती। मन रोता रहता है, झल्लाता रहता है अपनी इस कायरता पर। जी होता है कि उठूं और जाकर कह दूं उस आदमी से, "हाँ, मैं ही हूँ तुम्हारा मुजरिम। देखो मैं कायर नहीं हूँ, देखो मैं कह रहा हूँ कि मैं ही हूँ तुम्हारा मुजरिम।" मगर ये दिल झूठ नहीं बोल पाता। ये जानता है कि मैं कायर हूँ। ये जानता है कि मुझमे हिम्मत नहीं है उस आदमी का सामना करने की। ये सब कुछ जानता है और मन ही मन रोता भी है।
पहली नाईट ड्यूटी होने की अनुभूति कभी नहीं भूल पाऊंगा। याद रखना चाहता था, एक सुखद अनुभूति को। याद रहेगी, एक दुखद दास्ताँ।

5 comments:

L.Goswami said...

यह संवेदनशीलता जाते जाते जाएगी ...अभी कई मौके आयेंगे

Aashu said...

@लवली कुमारी जी: क्या इस संवेदनशीलता का जाना जरूरी है? क्या अपनी पेशेवर ज़िन्दगी में संवेदनाओं, भावनाओं के लिए कोई जगह नहीं रखना सिर्फ एक मजबूरी नहीं? कुछ लोगो का तर्क है कि पेशे में भावना को मिलाने से पेशा नहीं चल सकता मगर मेरे हिसाब से इस तरह से इन दोनों को अलग रहना एक आवश्यकता नहीं सिर्फ मजबूरी है और मजबूरियों से सिर्फ आदमी कमजोर हो सकता है और कुछ नहीं। तो क्यूँ न एक पहल की जाय। पेशा और संवेदनाओं की खिचड़ी चख के देखते हैं!

Udan Tashtari said...

बस, यह संवेदनशीलता बनाये रखिये और कोशिश करिये कि जब कभी, जितनी मदद कर पायें..करिये. धीरे धीरे एक एक स्कस्ट्रा स्टेपस लेकर आपन न सिर्फ व्यवस्था में बदलाव लायेंगे बल्कि सतकर्मों से यह आत्म ग्लानि से भी उबर पायेंगे.

अनेक शुभकामनाएँ.

Anonymous said...

guru tu abhi jeewan k aise paidan par pahuch gaya hai jaha aisi kaie saari gatnae tujhe jakjhoregi , kuntha ka ehsas dilaegi par ae dost tu kar bhi kya sakta tha aisi paristhiti me ... ye puri jo pranali hai usse tu akele nahi badal sakta . Ek daal akele kitni majboot hogi ......... so in baato se apna dhayan na bhatka moh ki pira ka tayag kar .. aur jindigi jita rah ...

Nitesh said...

Try to do some better in future from what you learn in your first night duty. I hope and pray from all god that when U will become अधीक्षक ,this type of any incident should not repeat in hospital.