Sunday, May 30, 2010

भारत! अपने मन में बिहार की छवि बदलो, बिहार बदल रहा है!!!

आज यूँही ब्लॉग के समंदर में तैरते हुए इस ब्लॉग पर नजर पड़ गयी। नीतीश कुमार के बिहार, बिहार के विकास, पत्रकारों की भूमिका इत्यादि पर एस एन विनोद साहब ने बड़ी बड़ी बातें लिखी हैं। इस आलेख को पढ़कर समझ नहीं आ रहा है कि क्या प्रतिक्रिया दूं। हसूँ या रोऊँ समझ नहीं आ रहा। अपने आपको वरिष्ठ बताने वाले पत्रकार क्या क्या कर सकते हैं ये सोचकर अजीब लग रहा है। खैर, पढ़िए इस आलेख को इस लिंक पर क्लिक करके और बताइए कि मेरी परतिक्रिया जो मैंने लिखी है आज इस ब्लॉग पर वो सही है या गलत। बताइयेगा जरूर, इंतज़ार में हूँ!!!
नागपुर में बैठे-बैठे अपने किसी दोस्त की बात को मानकर बिहार के बारे में कोई छवि बना लेना मेरे हिसाब से सही नहीं है। विनोद जी के जिस मित्र का एक वरिष्ठ पत्रकार होना वो बता रहे हैं, उनकी बात की सच्चाई का प्रमाण क्या है? पत्रकारिता के जिस समाज को विनोद जी और उनके तथाकथित वरिष्ठ पत्रकार मित्र बिका हुआ और झूठा बता रहे हैं, वो शायद ये भूल गए हैं कि वो खुद भी उसी समाज से आते हैं। विनोद जी और उनके मित्र ने बिहारी पत्रकारों को नीतीश कुमार के हाथों बिका हुआ बता दिया और हम विश्वास कर लेते हैं। मैं विनोद जी और उनके मित्र को लालू यादव के हाथों बिका हुआ बताता हूँ, क्या आप मेरा विश्वास करेंगे? आप करें या न करें, इसका फैसला इस टिप्पणी को पढ़कर या मुझसे फ़ोन पर बात करके नही लिया जा सकता। हकीकत देखनी है तो आइये बिहार और देखिये। 5 साल पहले का बिहार और आज के बिहार में अंतर है। मैं पटना का हूँ और अभी अभी मैं रात के 1 बजे , 35 किलोमीटर की दूरी तय करके घर आ रहा हूँ। इस दूरी को तय करने में मुझे डेढ़ घंटे लगे। 5 साल पहले भी डेढ़ घंटे ही लगते थे मगर कारण अलग था। पहले सड़क में गड्ढे ही गड्ढे थे जिसके कारण गाड़ी रफ़्तार नहीं पकड़ती थी। आज सड़क पर रात के 1 बजे भी ट्रैफिक रहता है जिसके कारण गाड़ी रफ़्तार नहीं पकड़ पाती। क़ानून व्यवस्था में सुधार की इससे बड़ी मिसाल शायद आपको कहीं और न मिले।
किसी मित्र के बारे में झूठी अफवाह फैलाता हूँ मित्रों के बीच में कि उसकी शादी होने वाली है तो दो दिन के बाद मुझे ही कुछ और मित्र लड़की का नाम-गाँव इत्यादि भी बता देते हैं। बात निकलती है तो सच में दूर तलक जाती है। मेरी कही बातों में मिर्च-मसाले लगाकर दो दिन के बाद मुझे ही सनसनीखेज खबर के रूप में बताया जाता है। ये है हकीकत इंसानी मानसिकता की। मैं किसी को कुछ बोलूँगा वो उसी बात को किसी और से कुछ बोलेगा और आप तक पहुँचते-पहुँचते राम श्याम बन जाता है।
बिहार की ऐसी छवि पूरे देश में इन गुजरे हुए 15 सालों में बन चुकी है कि इसे 5 साल में बदल डालना किसी के बूते की बात नहीं। धीरे-धीरे ये स्वयं बदलेगा मगर इसमें सबसे बड़े बाधे ये लोग हैं जो ऐसी उलूल-जुलूल बातें फैलाते हैं। समय दीजिये बिहार को और देखिये ये कैसे बदलता है। विकास दर की स्थिति में बिहार भारत में सिर्फ गुजरात से पीछे दुसरे नंबर पर है। ये साक्ष्य आपको दिखाई नहीं देता विनोद साहब, आपको सिर्फ सुनाई देती है टेलीफोन पर आपके मित्र की बात। उस मित्र की बात जिसका नाम तक आप नहीं बताते, जिसकी प्रमाणिकता पर आप दो शब्द तक नहीं लिखते। और ऐसे किसी शख्श की एक बात पर अपने ही पूरे समाज को भ्रष्ट, चोर, बिका हुआ और न जाने क्या क्या बता देते हैं। थोडा शर्म कीजिये कम-से-कम अपने पत्रकारिता समाज के लिए।
विनोद जी से एक आग्रह है कि किसी से सुनी बात पर इतनी बड़ी छवि बना लेने से पहले तथ्यों को थोडा परख लें। आइये बिहार, देखिये इसे। 15 साल से गर्त में जा रहे बिहार को आज ज़मीन पर आते हुए देखिये। नितीश अगले 5 सालों के लिए आयेंगे या नहीं मालूम नहीं, मगर इतना जरूर है कि हर पढ़ा-लिखा बिहारी यही चाहता है। ये सच्चाई है। मैं पत्रकार नहीं, इसलिए इसे बिहारी पत्रकारों की सफाई मत समझिएगा। मैं विद्यार्थी हूँ MBBS का, आम नागरिक हूँ बिहार का और लिख भी रहा हूँ इसी हैसियत से। कम से कम किसी बिहारी का दिल न दुखाइए!!!

Wednesday, May 26, 2010

न लिखने का कारण!!!

दो हफ्ते से ऊपर गुजर गए, एक भी पोस्ट नहीं लिख पाया हूँ ब्लॉग पर। कुछ आलस, कुछ काम और कुछ घूमना-फिरना; दो हफ्ते कैसे बीत गए पता नहीं चला। पिछले हफ्ते माँ-पिताजी के साथ पुणे घुमने चला गया था। कोई ख़ास कारण नहीं था बस एक पारिवारिक छुट्टी थी। ज्यादा लम्बी भी नहीं थी, पुणे में सिर्फ 3 दिन ही रहना था, 3 दिन तो ट्रेन में ही बीत गए। खैर, एक सुखद यात्रा रही जिसमे काफी कुछ मिला जो लम्बे समय तक याद रहेगा।
आज जब अपने ब्लॉग की तरफ ध्यान दे रहा था तो पाया कि काफी दिनों से कुछ सही मायनों में लिखा नहीं। यूँही समय काटने जैसा ही रहा ब्लॉग की तरफ ध्यान। कुछ लिखना है इसलिए कुछ भी लिख दिया, सिर्फ यही बात रही और कुछ नहीं। लिखने के लिए कोई ढंग का विषय नहीं मिल पाया इन दिनों। अभी जब सोच रहा हूँ कि ये 'ढंग का विषय' आखिर चीज क्या है तो कुछ ठोस जवाब नहीं मिल पा रहा। ज़रा बुद्धिजीवी की तरह सोचूं तो जवाब आता है कि हर वो विषय जो कुछ सोचने को मजबूर करता है वो एक 'ढंग का विषय' है मगर यथार्थ की ओर जाता हूँ तो कुछ और ही जवाब मिलता है। यथार्थ तो सिर्फ ये कह रहा है कि हर वो विषय जिसपर किसी को गरियाने का स्कोप बनता है वो 'ढंग का विषय' है।
बचपन में जब हिंदी की कक्षा में यथार्थ और यथार्थवादी जैसे शब्दों को सुनता था तो मतलब समझ नहीं पाता था। आज यथार्थ का मतलब बड़ी अच्छी तरह से समझ सकता हूँ। जो मुझे मेरे औकात का दर्शन कराये वो यथार्थ है। बुद्धिजीवी बनकर एक 'ढंग के विषय' की खोज करता फिरता हूँ मगर वो विषय मिल जाने पर भी कुछ लिख नहीं पाता। कारण सिर्फ इतना कि उसमे किसी को गरियाने का स्कोप नहीं बनता। सच कहूं तो मूल कारण है कि बुद्धिजीवी हूँ ही नहीं मैं। मेरी औकात बस TRP के चक्कर में पड़े उस हिंदी न्यूज़ चैनल के जितनी है जो किसी भी समाचार के सिर्फ उस पक्ष को दिखाता है जिसमे मसाला हो, जिससे किसी की आलोचना आराम से की जा सके।
बड़ी आसानी से किसी को भी गरियाता चला जाता हूँ अपने ब्लॉग पर और बाद में खुश भी होता हूँ कि आज कुछ दमदार लिख दिया। कभी सरकार को गरियाता हूँ, कभी समाज को, कभी प्रशासन को तो कभी जनता-जनार्दन को। जब कोई नहीं मिलता तो खुद को गरियाने बैठ जाता हूँ। अब लीजिये यही पोस्ट देख लीजिये। आज जब कोई नहीं मिला तो खुद को गरिया रहा हूँ। इस नकारात्मकता से कब मुक्ति मिलेगी पता नहीं। पहले भी ये सवाल उठा चुका हूँ और कई ब्लॉगर साथियों ने भी उठाया है इस सवाल को मगर जवाब कभी नहीं मिला। अपेक्षा भी नहीं है। खैर छोडिये, लम्बे-लम्बे भाषण पहले ही दिए जा चुके हैं इस विषय पर। एक बार फिर से पकाने का कोई इरादा नहीं मेरा। नकारात्मकता के खिलाफ मोटे-मोटे अक्षरों में पोस्ट लिख दी जाएगी मगर जब पुनर्वलोकन होगा तो पाऊंगा कि ये पोस्ट भी नकारात्मकता से भरी एक साधारण पोस्ट है जिसमे मेरी औकात एक बार फिर सामने आ रही है। रहने दीजिये, मेरी औकात सबके सामने नहीं आये यही बढ़िया है। कम से कम मैं भी खुश रहूँ कि मैं हूँ एक बुद्धिजीवी, कि मैं भी लिखता हूँ उन 'ढंग के विषयों' पर। अभी के लिए नमस्कार! कुछ सवालों के साथ फिर हाज़िर होऊंगा। नमस्कार!!!

Wednesday, May 12, 2010

पाकिस्तान का देशप्रेम, वो भी चुराया हुआ!!!

Youtube वेबसाईट के बारे में आप सब जानते होंगे। बड़ी अच्छी साईट है। कभी भी कोई भी गाना सुनना हो आराम से खोजें ओर बेफिक्र होकर सुने। ऐसे ही कई गाने, खासकर पुराने गाने सुनने का शौक़ीन हूँ। जब भी मन करता है Youtube पर जाता हूँ और गाने सुन भी लेता हूँ। एक रात यूँही बैठे-बैठे देशभक्ति का जज्बा दिल में उबाल मारने लगा। बचपन में स्कूल में स्वतंत्रा दिवस ओर गणतंत्र दिवस के दिन कई गाने गाया करता था। उनमे से जो मेरा सबसे प्रिय गाना था वो था, जागृति फिल्म का 'आओ बच्चों तुम्हे दिखाएँ झांकी हिन्दुस्तान की।' उस रात भी इसी गाने की खोज में मैं Youtube पंहुचा। गाने को खोजा और उम्मीद मुताबिक़ तुरंत मिल भी गया। एक गाने की लिंक भी साथ में आ रही थी। गाना थोडा अटपटा लग रहा था इस लिए उसकी तरफ भी मुखातिब हुआ। वही संगीत और हुबहू वैसे ही बोल, फर्क सिर्फ इतना कि उस गाने में सैर पाकिस्तान की हो रही थी। माथा ठनका। फिल्म का पता किया तो मालूम हुई की 'बेदारी' नाम की एक फिल्म पाकिस्तान में बनी थी 1957 में जो बिलकुल 'जागृति' को उठा कर उर्दू में बनाई गयी एक फिल्म थी।
हम हिन्दुस्तानियों से 'जागृति' फिल्म की अहमियत छुपी नहीं है। अगर तीन सबसे बढ़िया देशभक्ति फिल्म के नाम लिए जायेंगे तो 'जागृति' जरूर उनमे से एक होगी। फिल्म की बात अगर थोड़ी देर छोड़ भी दी जाये और सिर्फ गानों की बात की जाये, तो इस फिल्म के गाने हमेशा हर हिन्दुस्तानी की जुबान पर रहते हैं। हमें हमारी हिंदुस्तानियत की याद दिलाते हैं इस फिल्म के गाने। जागृति में चार गाने हैं। बिलकुल वैसे ही चार गाने 'बेदारी' में भी हैं।
1954 में जागृति आई और इसके तीन साल बाद 1957 में पाकिस्तान में बनी बेदारी। सब कुछ जागृति जैसा। हिंदी के संवाद उर्दू में बोले गए, गानों की संगीत और सूरत के साथ कोई छेड़-छाड़ नहीं की गयी बस बोल बदल दिए गए। जहां जहां हिन्दुस्तान था वहाँ वहाँ पाकिस्तान कर दिया गया। जहां गाँधी की महिमा का गुणगान हो रहा था वहाँ जिन्नाह की शख्शियत बुलंद होने लगी। हेमंत कुमार साहब के संगीत से कोई छेड़-छाड़ नहीं हुई बस नाम फ़तेह अली खान साहब का लिख दिया गया। प्रदीप के बोलों को बखूबी मुनव्वर सुल्ताना ओर सलीम राजा ने पाकिस्तानी जुबां दे दी। बाकी सब कुछ वैसा ही। देशभक्ति के जज्बे में कोई बदलाव नहीं किया गया, जो जागृति में था उसे वैसे ही उठा कर पेश कर दिया गया। जागृति हमारे यहाँ कामयाब हुई और बेदारी ने पाकिस्तान में कामयाबी के झंडे गाड़े।
ज़रा सोचिये, जिस मुल्क को अपनी देशभक्ति दिखाने के लिए अपने पडोसी राष्ट्र, जिन्हें वो दुश्मन का दर्ज़ा देते हैं, से यदि गाने और फिल्म चुराने पड़े तो उस मुल्क के देशप्रेम को क्या आँका जाये। मैं ये नहीं कहता कि हमारे हिन्दुस्तान में फिल्म और संगीत चुराए नहीं जाते, मगर इतना जरूर है कि देशभक्ति के जज्बे की जब बात आती है तो वहाँ हमें किसी और से कुछ चुराने की जरुरत नहीं पड़ती। खैर, काफी संवेदनशील मामला है इसलिए ज्यादा नहीं लिखूंगा यहाँ पर, मगर जिनके अन्दर तिनके बराबर भी देशप्रेम है उनके लिए कुछ लिखना जरूरी भी नहीं। मैं कोई अलग नहीं हूँ जो मेरे अन्दर कुछ अलग भावनाएं आएँगी। निचे देखिये 8 गाने के लिंके दिए जा रहे हैं, 4 जागृति के और 4 बेदारी के। गानों को देखिये, उन्हें सुनिए और कुछ महसूस कीजिये। जो महसूस होगा ठीक वही भावनाएं मेरे अन्दर भी हैं, इसलिए कुछ लिख नहीं रहा। धन्यवाद!!!














Wednesday, May 05, 2010

कसाब हमारा मुजरिम है, सजा भी हम ही देंगे!

इधर फिर से कई दिनों से कोई पोस्ट अपने ब्लॉग पर नहीं लिख पाया। व्यस्तता के साथ-साथ उदासीनता भी एक कारण रही ब्लॉग पर न आने की। सच कहूं तो कोई ऐसा वाकया भी नहीं मिला जो मुझे कुछ सोचने और लिखने के प्रति मजबूर कर सके। डाक्टर बने हुए एक महीने पूरे हुए और इन एक महीने में, हालांकि, एकाध बात आपसे बाटने लायक हुई मगर समय की कमी यहाँ बजी मार ले गयी। खैर, आज समय निकला है तो कुछ बाँट रहा हूँ आप सब से। अभी समाचार चैनलों में कसाब की सजा के बारे में कई बातें बतलाई जा रही है। अभी परसों ही विशेष अदालत ने अजमल कसाब को मुंबई हमलों का दोषी करार दिया। क्या सजा मिलने वाली है इसका पूरे देश को बेसब्री से इंतज़ार है। मुझे भी हैं। जानना चाहता हूँ कि जिसने मेरी आत्मा को घायल किया था उसे हमारी न्याय-प्रणाली कितनी सजा देती है।
जब से पैदा हुआ हूँ, भारत में कई आतंकी हमले देख चुका हूँ। '93 मुंबई हमलों की याद नहीं मुझे, तब सिर्फ 6 साल का था। धुंधली सी कोई तस्वीर भी नहीं मन में उस हमले की दिल में। मगर उसके बाद कई हमले देखे। दिल्ली के बाजारों में हुए हमले हों या मुंबई के लोकल ट्रेन में हुए, जयपुर की गलियाँ दहली हों या अजमेर का पाक शहर, घायल हर बार पूरा हिन्दुस्तान हुआ, चोट हम सब की आत्मा पर सीधी जा के लगी। ऐसे ही कई हमले हुए जो शायद याद भी नहीं अभी। हफ्ते-दो-हफ्ते तक एक गुस्सा मन में रहा मगर जो निकला तो निकला ही रह गया। हालत ऐसी हो चुकी थी कि इतनी बार मन घायल हो चुका था और इतनी चोट लग चुकी थी कि एक नए हमले की खबर से कोई ख़ास असर नहीं पड़ता था। दिल्ली, जयपुर में हुआ हमला याद है मगर ज्यादा बाते नहीं। कई हमले तो बिलकुल नहीं याद। इन सब के बावजूद भी 26/11 आज भी अच्छी तरह याद है। एक-एक वाकया, एक-एक दृश्य हुबहू आँखों में हैं।
कुछ तो अलग बात थी उस हमले में। छुप कर वार करने वालों इन आतंकियों में अचानक इतनी हिम्मत आ गयी की खुले-आम, सरे-शाम मौत का एक तांडव उन्होंने मुंबई में खेल लिया। मुझे मुंबई हमला सिर्फ इसलिए नहीं याद कि इस बार चंद दहशतगर्दों ने सीना तान कर आमने सामने की लड़ाई छेड़ी थी हमारे साथ मगर इसलिए भी कि इस बार अपने लोगों को मरते हुए अपनी आँखों से TV पर देखा था हम सबने। शहीद करकरे को जैकेट और हेलमेट पहनते सीधा देखा था हमने। उन्हें पिस्टल लेकर समर-क्षेत्र में उतरते पूरा राष्ट्र देख रहा था। मैं भी अपने घर में TV से चिपका बैठा था। करकरे साहब की मौत की खबर से मन दहल उठा था। अपने किसी अतिप्रिय, अति-परिचित को खोने जैसा दुःख हुआ था उस रात। हमले के 3 साल पहले मुंबई गया था। गेटवे-ऑफ़-इंडिया के सामने खड़े होकर लाखों लोगों की तरह ताज को मैंने भी निहारा था। जब उसी ताज के गुम्बद को जलता हुआ देखा तो लगा जैसे किसी ने मेरे तन-बदन में आग लगा दी हो। ये हमला कोई साधारण हमला नहीं था, सीधे-सीधे करोड़ों हिन्दुस्तानियों की आत्मा को छलनी किया था इस हमले ने। भारत की आत्मा पर हमला था ये हमला।
आज जब कसाब को दोषी करार दिया गया है तो एक ख़ुशी भी है और एक गुस्सा भी। कसाब हमसब का मुजरिम है, सजा तो मिलनी ही चाहिए। मगर क्या इस सजा के लिए हमें इतना वक़्त लेना चाहिए था। इन डेढ़ सालों में, भारत में राष्ट्रपति के बाद सबसे ज्यादा सुरक्षित यदि कोई व्यक्ति था तो वो कसाब था। क्या इस तरह का व्यवहार उचित था? करोड़ों हिन्दुस्तानियों के उस मुजरिम के लिए क्या किसी सुनवाई की जरुरत भी थी?
आज जब सजा का एलान नहीं हुआ है अभी तक, कई बहस हो रहे हैं कि फांसी देनी चाहिए या नहीं। मैं कसाब के लिए किसी भी तरह की रहम की कोई उम्मीद नहीं रखता और मेरे हिसाब से किसी को भी नहीं रखनी चाहिए। वो हमारा मुजरिम है, उसे सजा भी वही मिलने चाहिए जो हम चाहें। सिर्फ फांसी से काम नहीं चलने वाला। हमें इस तरह खून के आंसू रुलाने वाले के लिए इतनी आसान मौत हमें मंजूर नहीं। न्याय-प्रणाली पर पूरा भरोसा है मुझे पर इस बार हमें उसकी जरूरत नहीं। फांसी की आसान मौत का उसके जुर्म के सामने कोई मोल नहीं। अगर सौ बार फांसी लगायी जाए तो भी शायद उसकी सजा कम ही रहेगी। एक अर्जी करता हूँ, छोड़ दीजिये कसाब को। घुमने दीजिये कसाब को मुंबई की गलियों में। दे दीजिये हमें आज़ादी अपनी ओर से उसे सजा देने की। हम जान नहीं लेंगे उसकी। हर एक भारतीय के पास ले जाइये उसे और देने दीजिये उसे उसकी सजा। उसके बाद जो करना है करिए उस कसाब के साथ। जेल में सड़ाना चाहते हैं सड़ाइए उसे, फांसी चढ़ाना चाहते हैं, चढ़ाइए उसे, मगर पहले हम हिन्दुस्तानियों को अपना हिसाब चुकता कर लेने दीजिये। कसाब हमारी न्याय-प्रणाली का मुजरिम नहीं वो हिन्दुस्तान का मुजरिम है और उसे सजा भी हिन्दुस्तान ही देगा, उसे सजा हम देंगे और कोई नहीं!!!