Monday, April 07, 2014

बस उस मौके की तलाश में...


ऐसे पेशे में रहना जहां जीवित रहने के लिए (और मरीज़ों को रखने के लिए भी) पढ़ाई करने की जरुरत हमेशा बनी रहती है वहाँ अपने आप को किताबी-कीड़ा कहने में कोई परहेज़ नहीं होना चाहिए। हालांकि मुझे इस सम्बोधन से हमेशा ऐतराज़ रहा है और ऐसे किसी भी व्यक्ति की संगत मुझे कभी रास नहीं आयी। कभी भी अपने आप को एक किताबी-कीड़े की तरह नहीं रखा। पढ़ाई उतनी ही की जिससे काम चलता रहे। हाँ मगर, ये भी है कि उतनी ही पढ़ाई जिससे काम चलती रहे तक अपने को सीमित रखने के चक्कर में दिल लगाकर कुछ और कभी पढ़ नहीं पाया। दोस्तों के साथ जब साहित्य की और उपन्यासों की बात होने लगती थी तो अपने आप को हमेशा अलग-थलग महसूस करता था। शायद यही कारण था कि हमेशा से उन लोगों के प्रति जो अपना काफी समय साहित्य की तरफ देते थे, एक आदर की भावना मन में रहती थी और एक चाहत रहती थी कि काश कभी मैं भी समय निकाल कर कुछेक किताबें पढ़ सकूं।

ज़िन्दगी में कई समय ऐसे आये जब साहित्य की तरफ रूझान काफी उमड़-उमड़ कर बाहर आया मगर हर बार कुछ अपने आलस की वजह से और कुछ पेशे की जरुरत को देखकर बीच में ही ख़त्म हो गया। इधर कुछ दिनों से फिर से  साहित्य की तरफ का आकर्षण बढ़ा है और कुछ नया पढ़ने की कोशिश जारी है। हालांकि जब लिखने की या बोलने की बात आती है तो हिंदी से ही अपनापन ज्यादा महसूस होता है मगर पढ़ने के समय खिंचाव अंग्रेजी साहित्य की तरफ ज्यादा चला जाता है। कारण कुछ ख़ास नहीं हैं। शायद जिन लोगों से ऐसी चर्चा होती है वो सब अंग्रेजी के ज्यादा शौक़ीन हैं इसलिए सुझाव भी अंग्रेजी के ही ज्यादा आते हैं। साहित्य किसी भी भाषा में हो, मानवीयता एक ही होती है, भावनाएं एक ही होती हैं। संस्कृति के थोड़े अंतर के कारण इंसानियत में बदलाव नहीं आता। साहित्य की यही खासियत होती है और इसलिए मेरा मानना है कि इसे भाषा के तराजू में तौलने से हमेशा बचना चाहिए। खैर…

कई बार कोई कहानी या उपन्यास पढ़ते-पढ़ते उनमे छुपी हुई भावनाएं, वो परिस्थितियां आपकी ज़िन्दगी से ऐसी मेल खा जाती हैं कि आपको लगता है कि आप अपनी ही कहानी पढ़ रहे हैं। कहानी के किरदारों के साथ आपका रिश्ता जुड़ने सा लगता है। उनके साथ अपनापन महसूस होने लगता है। दूर-दूर तक न उसके साथ न उसकी परिस्थिति के साथ आपका कोई सम्बन्ध होता है फिर भी आप कहीं न कहीं अपनी और उन भावनाओं में समानता देखने लगते हैं। कई बार आपको आपकी अपनी भावनाओं का एहसास ही तब होता है जब कहानी में उस किरदार को आप वैसा महसूस करते पाते हैं। ऐसा ही कुछ पिछले कुछ दिनों में कुछ हद तक मेरे साथ भी हुआ है, खालिद हुसैनी की "The Kite Runner" पढ़ कर।

चार युगों में फैले हुए अफ़ग़ानिस्तान में बसी तीन पीढ़ी की कहानी है The Kite Runner. ये कहानी है अफ़ग़ानिस्तान के युद्ध और राजनैतिक अस्थिरता के मकड़जाल में फंसे भावनाओं के बवंडर की। ये कहानी है बाप-बेटे के रिश्ते की बनते-बिगड़ते रूप की। ये कहानी है बचपन की दोस्ती और उस दोस्ती में धोखे की। ये कहानी है धोखे से जुड़े पश्चाताप और उसे सुधारने की जद्दोजहद की। हालांकि इन किन्हीं भी परिस्थितयों से कभी मेरा कोई साक्षात्कार नहीं हुआ है मगर फिर भी कहीं न कहीं इस कहानी ने मुझे अपने अंदर झांकने को मजबूर जरूर किया है।

कई बार जाने-अनजाने में आप अपने चाहने वालों की महत्ता अपनी ज़िन्दगी में समझ नहीं पाते। बस घर की मुर्गी दाल बराबर समझते हुए निकलते चले जाते हैं। बार-बार टोके जाने पर भी समझ नहीं आता कि सामने वाले पर आपके इस व्यवहार का क्या असर पर रहा है। उसके दिल पर क्या गुजरती होगी जब आपकी तरफ से उसे रह रह कर बेरुखी ही मिलती है। सामने वाले के लिए उसके प्यार के प्रति, उसके विश्वास के प्रति, उसके भरोसे के प्रति ये आपका धोखा ही है। ना जानते हुए भी, ना समझते हुए भी आप उसके साथ धोखे पर धोखा करते ही चले जाते हैं। और सबसे ख़राब तब होता है जब आपको इस बात का अहसास होता है कि आपने कोई धोखा किया है मगर फिर उसे छुपाने की कोशिश में आप लगातार और धोखे करते चले जाते हैं। एक झूठ को बचाने के लिए सौ झूठ, वैसे ही एक धोखे को बचाने के लिए सौ और धोखे।

पापों का अम्बार खड़ा होता चला जाता है और फिर अंत में जब अहसास होता है तो फिर पीछे मुड़ कर सब कुछ ठीक कर देने की स्थिति से आप बहुत आगे निकल आते हैं। अब सिर्फ मौकों की तलाश रहती है कि कब कोई ऐसी स्थिति आये और आप अपने पापों का प्रायश्चित कर पाये। कहानी के नायक को अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए मौका मिल जाता है मगर आप, आप बस इंतज़ार करते चले जाते हैं कि कब वो मौका आये और आप अपने पापों को धो पाएं, उस विश्वास को, उस प्यार को, उस भरोसे को जिसे आपने बहुत पहले खो दिया है उसे वापस जीत पाएं। बस उस मौके की तलाश में...