Sunday, June 07, 2015

मारे गए गुलफाम! और तीसरी कसम

कुछ दिनों पहले परीक्षाओं को लेकर पढाई में काफी व्यस्त था। दिन भर हॉस्टल के कमरे में किताबों के बीच पड़ा रहता था। बाहरी दुनिया से भौतिक तालमेल टूट चुका था। इंटरनेट के माध्यम से ही मन बहलाने का काम चलता था। बाहर जाना, घूमना-फिरना इन सब के लिए न तो समय था और न ही समय निकाल पाने की हिम्मत होती थी। मन बहलता था युट्यूब के वीडियो से। पुराने दूरदर्शन के धारावाहिक के एपिसोड या फिर कभी कभी कोई डाक्यूमेंट्री फीचर। इसी क्रम में मौका मिला फणीश्वर नाथ रेणु के जीवन पर बने इस कार्यक्रम को देखने का। रेणु के बारे में पहले भी कई बार बहुत कुछ पढ़ चुका था। कार्यक्रम के दौरान कई नई जानकारी मिली और कुछ पुरानी बातों की पुनरावृति हो गयी।

बचपन में पापा पुस्तक मेला लेकर जाते थे। पुस्तक उनके लिए होते थे, मेला हमारे लिए। एकाध कोई भारती भवन की किताब हम पसंद करते थे, पापा पुस्तकों का एक जखीरा। राजकमल पेपरबैक्स के प्रतिनिधि कहानियों का कलेक्शन। अमृतलाल नागर, भीषम साहनी, इस्मत चुगताई, निर्मल वर्मा, मोहन राकेश इत्यादि। इसी कलेक्शन में रेणु का नाम पहली बार सुनने का मौका मिला था। तब उम्र इन्हें पढ़ने की नहीं थी। बड़े हुए, घर बदला और शायद तबादले में या समय के साथ ये किताबें कहीं खोने लगी। बड़े भाई को भी साहित्य का शौख था। पुस्तक मेले में फिर उसके साथ जाने लगा। पुस्तकों के प्रति थोड़ा रुझान बढ़ चुका था मगर फिर भी ज्यादा समय नहीं दे पाता था। ज्यादा जानकारी भी नहीं थी। अपना इस्तेमाल मेले में मैं भैया की मदद के लिए करता था। "रेणु की 'मैला आँचल' कहीं दिखे तो ले लेना", उसने कहा था। उसके हाथ में पहले से 'परती परिकथा' और 'एक आदिम रात्रि की महक' थी। कुछ और किताबों के साथ। जिनमें वो प्रतिनिधि कहानियों का कलेक्शन भी था जो खो गए थे।

तब तक बड़ा हो चुका था और थोड़ी बहुत जानकारी सिनेमा और साहित्य के बारे में मिल चुकी थी। विविध भारती के कार्यक्रम पिटारा में शुक्रवार (शायद) को बॉयोस्कोप की बातें आती थी। उसमें फिल्म तीसरी कसम के बारे में सुना था कुछ ही दिन पहले। रेणु की प्रतिनिधि कहानियाँ वाली किताब में 'मारे गए गुलफाम' को ढूँढा और पढ़ा। तब से फिल्म देखने की इच्छा मन में रही। टीवी पर कई बार मौका मिला पर पूरी फिल्म टुकड़ों में ही देख पाया। जब से फिर से यूट्यूब पर रेणु पर वो कार्यक्रम देखा, तब से फिर से तीसरी कसम देखने की इच्छा बलवती हो गयी। फिर क्या था, इंटरनेटी युग है, हो गया सिनेमा डाउनलोड और आखिरकार कल फिल्म देख ही लिया।

फणीश्वर नाथ रेणु उत्तर पूर्व बिहार से आते हैं और हिंदी साहित्य के उच्चतम लेखकों में एक हैं। बिहार से आते हैं और उनकी शैली में बिहारियात खुल कर बाहर आती है इसलिए शायद उनके साथ एक जुड़ाव अपने-आप बन जाता है। कोसी के उस इलाके से ताल्लुक रखते हैं जो न जाने कितनी बार कोसी की बाढ़ की मार झेलकर आज भी बिहार जैसे पिछड़े प्रदेश के सबसे पिछड़े इलाकों में एक है। तकरीबन 50-60-70 साल पहले लिखी गयी उन कहानियों में इस क्षेत्र का दुःख, इनकी गरीबी, ज़मींदारों का सामंती रवैया सब छलक-छलक कर बाहर आता है। और उस सामाजिक कुरीतियों और चलनों के ताने-बाने में संवेदनाओं का अनूठा खेल रेणु की हर कहानी में उनकी शैली बनकर बाहर आता है।

ऐसी ही समाज की दकियानूसी सोच और रवैये के बीच संवेदनाओं का एक भंवर है 'मारे गए गुलफाम' जिसपर फिल्म तीसरी कसम बनी। हिरामन नाम के एक गाड़ीवान की कहानी जो अपने जीवन में दो कसम खा चुका है, एक चोरबाज़ारी का सामान कभी नहीं लेगा और दूसरा बांस कभी नहीं लादेगा। उत्तर-पूर्वी बिहार के एक गाँव का ये नवयुवक गाड़ीवान गाड़ीवानी को अपनी जान बताता है। अपनी शादी की बात पर बोलता है, "कौन बलाय मोल लेने जाए! ब्याह करके फिर गाड़ीवानी क्या करेगा कोई! और सबकुछ छूट जाए, गाड़ीवानी नहीं छोड़ सकता हिरामन।" इस बार उसे सवारी मिलती है नौटंकी कंपनी के एक बाई की, हीराबाई। हीराबाई हिरामन को मीता कहकर बुलाती है, कहती है, "तब तो मीता कहूँगी, भैया नहीं।, मेरा नाम भी हीरा है।" हिरामन कुछ नहीं कह पाता सिर्फ मुस्कुराता है और पूरी मासूमियत से अंत में कहता है, "इस्स"।
"एक तो पीठ में गुदगुदी लग रही है। दूसरे रह-रहकर चंपा का फूल खिल जाता है उसकी गाड़ी में। बैलों को डाँटो तो 'इस-बिस' करने लगती है उसकी सवारी। उसकी सवारी! औरत अकेली, तंबाकू बेचनेवाली बूढ़ी नहीं! आवाज सुनने के बाद वह बार-बार मुड़कर टप्पर में एक नज़र डाल देता है; अँगोछे से पीठ झाड़ता है। भगवान जाने क्या लिखा है इस बार उसकी किस्मत में! गाड़ी जब पूरब की ओर मुड़ी, एक टुकड़ा चाँदनी उसकी गाड़ी में समा गई। सवारी की नाक पर एक जुगनू जगमगा उठा। हिरामन को सबकुछ रहस्यमय, अजगुत-अजगुत- लग रहा है। सामने चंपानगर से सिंधिया गाँव तक फैला हुआ मैदान! कहीं डाकिन-पिशाचिन तो नहीं?
हिरामन की सवारी ने करवट ली। चाँदनी पूरे मुखड़े पर पड़ी तो हिरामन चीखते-चीखते रूक गया, अरे बाप! ई तो परी है! परी की आँखें खुल गइं। हिरामन ने सामने सड़क की ओर मुँह कर लिया और बैलों को टिटकारी दी। वह जीभ को तालू से सटाकर टि-टि-टि-टि आवाज निकालता है। हिरामन की जीभ न जाने कब से सूखकर लकड़ी-जैसी हो गई थी!
''भैया, तुम्हारा नाम क्या है?'' 
हू-ब-हू फेनूगिलास! हिरामन के रोम-रोम बज उठे। मुँह से बोली नहीं निकली। उसके दोनों बैल भी कान खड़े करके इस बोली को परखते हैं।
''मेरा नाम! नाम मेरा है हिरामन!''
उसकी सवारी मुस्कराती है। मुस्कराहट में खुशबू है।
''तब तो मीता कहूँगी, भैया नहीं।, मेरा नाम भी हीरा है।''
''इस्स!'' " 
 कहानी आगे बढ़ती है। हिरामन उसे अपने गाँव-परिवार की बातें बताता है। अपने इलाके के लोक-गीत सुनाता है। कहानियाँ बताता है। महुआ घटवारिन की कहानी। एक कुंवारी सुंदरी जिसे एक सौदागर उठा कर ले गया था। हीराबाई को उस घाट पर नहाने से मना करता है जहाँ से महुआ को उठाया गया था जब वो नहा रही थी। सिनेमा और कहानी के इस प्रसंग में थोड़ा अंतर है। सिनेमा के इस प्रसंग में हिरामन की मासूमियत और कुंवारी शब्द सुनकर हीराबाई की मन की पीड़ा का भाव राज कपूर और वहीदा रहमान ने जिस प्रकार दिखाया है वो देखने लायक है। एक मासूम गाड़ीवान का एक कंपनी की बाई के लिए उमड़ता हुआ प्यार और समाज के अंदर ऐसे रिश्तों के प्रति नीची सोच के बीच का विरोधाभाष कहानी में पहली बार उमड़ कर सामने आता है और फिर इसी विरोधाभाष और इससे जुड़े संवेदनाओं को लेकर कहानी आगे बढ़ती जाती है।

हिरामन और हीराबाई की नजदीकी बढ़ती जाती है। हीराबाई को नौटंकी में नाचना तो फिर भी हिरामन को भाता है मगर उसपर दर्शकों और उसके खुद के दोस्तों की प्रतिक्रिया को वो बर्दाश्त नहीं कर पाता। उसके अंदर जलन की भावना घर करने लगती है। उसके दोस्त हीराबाई की तरफ वही भावना रखते हैं जो लोगों में नौटंकी कंपनी की बाई के लिए होती है। उसके दोस्त कहानी में उस समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसका एक हिस्सा हिरामन खुद है। हिरामन के मन में फिर भी हीराबाई के लिए इज़्ज़त रहती है जो समय के साथ प्यार में बदलने लगती है। वो इज़्ज़त, वो प्यार जो हीराबाई के लिए बिलकुल नया था। कंपनी की बाई को भला इज़्ज़त कौन देता है।

गाँव का ज़मींदार अपने दौलत के बल पर हीराबाई को अपना बनाने की कोशिश करता है। हीराबाई के लिए ये नया नहीं है। इसके पहले कई लोग उसका इस्तमाल इस तरह कर चुके हैं। मगर फिर भी उसको यहाँ यह नया लगता है। हिरामन से मिली इज़्ज़त से उसे लगता है कि उसे भी इज़्ज़त मिल सकती है, तो क्या हुआ अगर वो कंपनी की एक बाई है। अपने भूत, वर्त्तमान, और भविष्य के बीच में हीराबाई पिसती हुई नज़र आती है। वो क्या थी, वो क्या करती थी, उसके प्रति समाज की राय क्या थी। वर्त्तमान में हिरामन से मिलने वाली इज़्ज़त और प्यार के मायने उसके जीवन के लिए क्या थे, समाज में इस रिश्ते की प्रामाणिकता क्या होगी, ये रिश्ता उसे कहाँ ले जायेगा। उसका भविष्य क्या होगा, क्या हिरामन-हीराबाई के साथ का कोई भविष्य है। इन सभी प्रश्नों और इनसे जुड़े भावनाओं के बीच में हीराबाई टूटती हुई नज़र आती है। कंपनी के उसके दोस्त उसे कोई निर्णय जल्दी लेने के लिए बोलते हैं और पूरी समझदारी के साथ। ताकि इतनी देर न हो जाये कि, "कहीं ऐसा न हो कि हीरादेवी को कोई चाहने वाला न हो, और हीराबाई को कोई देखने वाला न हो।"

भावनाओं के इस भंवर से हार मान कर हीराबाई चली जाती है। हिरामन दौड़ता भागता हुआ मिलने स्टेशन जाता है। अंतिम भेंट। हीराबाई अपने देश वापस लौट जाती है। हिरामन को उसके पैसे और अपनी एक निशानी देकर। ट्रेन सिटी मारती हुई आगे बढ़ जाती है। आंसुओं के फव्वारे दोनों और मन में निकलने लगते हैं। बाहर कोई नहीं आने देता। हिरामन गाड़ी लेकर वापस लौटने लगता है। उसके बैल पलट-पलट कर जाती हुई रेलगाड़ी को देखता है। हिरामन उन्हें झाड़ते हुए कहता है, "पलट-पलट के क्या देखते हो, खाओ कसम फिर कभी कंपनी की बाई को गाड़ी में नहीं बैठाएंगे।" हिरामन की तीसरी कसम।
"रेलवे लाइन की बगल से बैलगाड़ी की कच्ची सड़क गई है दूर तक। हिरामन कभी रेल पर नहीं चढ़ा है। उसके मन में फिर पुरानी लालसा झाँकी, रेलगाड़ी पर सवार होकर, गीत गाते हुए जगरनाथ-धाम जाने की लालसा। उलटकर अपने खाली टप्पर की ओर देखने की हिम्मत नहीं होती है। पीठ में आज भी गुदगुदी लगती है। आज भी रह-रहकर चंपा का फूल खिल उठता है, उसकी गाड़ी में। एक गीत की टूटी कड़ी पर नगाड़े का ताल कट जाता है, बार-बार!
उसने उलटकर देखा, बोरे भी नहीं, बाँस भी नहीं, बाघ भी नहीं, परी देवी मीता हीरादेवी महुआ घटवारिन, कोई नहीं। मरे हुए मुहूर्तो की गूँगी आवाजें मुखर होना चाहती है। हिरामन के होंठ हिल रहे हैं। शायद वह तीसरी कसम खा रहा है, कंपनी की औरत की लदनी।
हिरामन ने हठात अपने दोनों बैलों को झिड़की दी, दुआली से मारे हुए बोला, ''रेलवे लाइन की ओर उलट-उलटकर क्या देखते हो?'' दोनों बैलों ने कदम खोलकर चाल पकड़ी। हिरामन गुनगुनाने लगा- ''अजी हाँ, मारे गए गुलफाम!'' "

Tuesday, June 02, 2015

वसुधैव कुटुम्बकम

कुछ दिनों से इधर घर से बाहर हूँ। हालांकि परदेस में ये अपने परिवार का घर ही है मगर फिर भी बात अपने आशियें की कुछ और होती है। दिनचर्या में बदलाव आ जाता है और रूटीन की गतिविधियाँ थोड़ी अनियमित हो जाती हैं। कल काफी दिन के बाद NDTV इंडिया पर रविश की रिपोर्ट देखने का मौका मिला। रविश का उन दिनों से फैन रहा हूँ जब उनका साप्ताहिक रिपोर्ट आया करता था। सीधे गाँव से, गली-मुहल्लों से। उनकी शैली में पुरविया टोन उनके नजदीक ले जाती थी। स्टूडियो के चहारदीवारी में उनकी रिपोर्टों की उड़ान पिंज़रे में बंद महसूस होती थी। कल वाली रिपोर्ट फिर से एक गाँव से आई थी।
फरीदाबाद का अटाली गाँव। आदर्श गाँव अटाली। आदर्श लिखना जरूरी है। ये याद रखने के लिए और फिर ये समझने के लिए कि हमारे देश में अगर कोई गाँव आदर्श कहलाता है तो उसकी भूमिका क्या होनी चाहिए और क्या होती है।

पहले ही लिख चुका हूँ कि कुछ दिनों से घर से बाहर हूँ इसलिए ताज़ा ख़बरों के मामले में थोड़ा अनभिज्ञ भी हूँ। इस आदर्श गाँव में कुछ दिनों पहले, 25 तारीख को, एक दुःखद घटना घटी। एक साम्प्रदायिक हिंसा। हिन्दुओं के एक गुट ने गाँव के मुसलमानों के ऊपर हमला कर दिया। विवाद एक मस्जिद बनाने को लेकर था। कोर्ट के आदेश के हिसाब से ज़मीन मुसलमानों की थी और मस्जिद बनाने में कोई आपत्ति नहीं थी। गाँव के हिन्दुओं को, मगर, कठिनाई थी मस्जिद के बनने से। क्यूंकि मस्जिद के ठीक सामने माँ का मंदिर था।

ऊपरी तौर से स्थिति और हालात दोनों वही पुराने दंगों वाले थे। वैसा ही कुछ यहाँ भी हुआ। पहले हिंसा, मारपीट, आगजनी फिर पलायन और शरण और फिर वोटों का राजनीतिक खेल। मैं इस सब के अंदर नहीं घुसना चाहता। उस प्रोग्राम में बड़ी बखूबी से दोनों पक्षों की बात साफ़-साफ़ दिखाई गयी है। बिना किसी पक्षपात के। मैं बात बस इन झंझटों के बीच में टूट जाने वाले इंसानी जज़्बातों की करना चाहता हूँ। गाँव का हरेक आदमी ये मानता है कि पहले हालात 'आदर्श' थे। कोई सांप्रदायिक भेदभाव की स्थिति पहले नहीं थी। सब मिलकर साथ में रहते थे। एक दूसरे के त्योहारों में शरीक होते थे। शादी-व्याह में न्योते चलते थे। एक बड़े परिवार के भाइयों की तरह उनलोगों का आचरण था। फिर अचानक ऐसा क्या हो गया। या अगर इसके पीछे छिपे बड़े तस्वीर को देखें तो फिर अचानक ऐसा क्या हो जाता है। हर उस मामले में जहां लोग ये आपसी सौहार्द छोड़कर भिड़ जाते हैं। धर्म के नाम पर, जात के नाम पर।

अपने कॉलेज के दिनों में जतियारी करने का कोई मौका नहीं छोड़ता था। कॉलेज के दोस्तों के साथ सम्बन्ध शायद आज उतने अच्छे नहीं है इसका एक कारण यह भी हो सकता है। जातिवाद और धर्मवाद का पक्षधर मैं आज भी हूँ। हर एक शख्श की एक पहचान होती है। ये जाति-धर्म इत्यादि उसी पहचान का एक हिस्सा है। आप अपने चेहरे से मुक्ति नहीं पा सकते, वैसे ही आप जात-धर्म से भी अलग नहीं हो सकते। पर जरुरत है इनको ढंग से समझने की। कोई जात या कोई धर्म सर्वोत्तम नहीं होता। कोई जात-धर्म दूसरी मान्यता रखने वालों को बुरा नहीं कहता। ये दुर्भावनाएं समाज में समय के साथ आती चली गयी हैं। अपना उल्लू सीधा करने के लिए धर्म-गुरु लोगों को भड़काते गए हैं और हम अंध-भक्तों की तरह भड़कते गए हैं। अंतिम नतीजा ऐसा निकलता है जहाँ हर धर्म शिक्षा तो शांति और सद्भाव की देता है मगर लोगों के मनों में द्वेष के सिवा और कुछ नहीं रहता।

ब्लॉग के साथ लिंक यहाँ शेयर कर रहा हूँ। उसी प्रोग्राम की। देखना चाहते हैं तो पूरा वीडियो देखिये। बहुत ही उम्दा रिपोर्ट है। मगर मैं जो कहना चाह रहा हूँ वो देखना चाहते हैं तो सीधे जाइये 36वें मिनट पर। गाँव की एक चौपाल पर लोग बैठे बातें कर रहे हैं। क्या हुआ और अब क्या करना है। जो हुआ उसके लिए दुःख सबको है। भाईचारे से मामले को सलटाने की बात भी सब कर रहे हैं। बुजुर्ग थोड़े नरम हैं। झुककर माफ़ी मांग लेने और सब कुछ पहले जैसा कर लेने की बात भी कह रहे हैं। एक नौजवान, हालांकि, थोड़ा गुस्से में नज़र आता है। गर्म खून। 'हर बार हम ही क्यों झुके' वाला। बातचीत का अंत होता है जब वही बुजुर्ग इस नौजवान को चुप करता है कि तुम तो बाहर से आये हो तुम क्या जानो कि गाँव की स्थिति क्या है और यहाँ क्या क्या हुआ।

इस एक बात से कितनी तस्वीर साफ़ हो जाती है। समाज का पूरा आइना बनकर ये बात सामने आती है। ऐसी हिंसाओं का कारण वो समाज खुद नहीं होता। हम अक्सर ऐसे बाहरी लोगों के बहकावे में आकर जोश खोते हैं। ऐसे लोगों के जिनका हमारी तकलीफों के साथ कोई सीधा सरोकार नहीं है। जिन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता हमारी हालात से। जो हमें उन्हीं अँधेरी गलियों में छोड़कर फिर बाहर निकल जायेंगे अपनी शहर की जगमगाती दुनिया में। अपना उल्लू सीधा करेंगे एक पूरे गाँव को उल्लू बनाकर।

इसीलिए कहता हूँ, दोष जात-धर्म को मानने वालों का नहीं है। दोष उनका है जो इनके नाम पर समाज को भड़काने का काम करते हैं। शांति और सद्भाव के साथ आगे बढ़ना चाहते हैं तो रोष और द्वेष के उस चश्मे को उतार फेंकिए जो आपको इंसानों को इंसान की तरह देखने से रोकता है। अपनाइये उस महान सोच को जिसमें कहा गया है, वसुधैव कुटुम्बकम।